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मथुराके प्राचीन टीले
पद्मासन--
बैठी जिन मूर्तियां प्रायः सदा ध्यान मुद्रामें उत्कीर्ण होती हैं । जिनके हाथ गोदमें पड़े होते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि ये प्रतिमाएं 'फिनिश' और कलात्मकतामें बौद्ध मूर्तियोंकी बराबरी नहीं कर सकतीं । उनकी अनवरत एक-रूपता और रूढ़ि-लाक्षणिकता दर्शकको निराश कर देती है यद्यपि इन मूर्तियोंमें भी कभी कभी अपवाद मिल जाते हैं।
प्राचीन तीर्थंकर मूर्तियोंमें से एक मथुरामें सुरक्षित नं० बी० ४ है। इस पर कुषाण राज वासुदेवके शासनकालका एक अभिलेख खुदा है । इसके आधार पर सामने दो सिंहोंके बीच धर्मचक्र बना है जिसके दोनों ओर उपासकोंके दल हैं। कुषाण कालीन तीर्थकर मूर्तियों पर इस प्रकारका प्रदर्शन एक साधारण दृश्य है । उस कालकी बुद्ध-मूर्तियोंकी भी यही विशेषता है, अंतर केवल इतना है कि उनमें धर्मचक्रके स्थान पर किसी बोधिसत्त्वकी प्रतिमा खुदी होती है । उपासकोंका जो प्रदर्शन होता है वह वास्तवमें उन मूर्तियोंके दाताओंका है । एक बृहदाकार बैठी जिन मूर्ति बी० १ है जो संभवतः गुप्तकालीन है यद्यपि इसकी शैली प्रायः कुषाणकालीन ही है ।
खड्गासन
खड़ी जिन मूर्तियां बैठी मूर्तियोंसे अधिक सादी हैं । कलाका दम इनमें तो और भी घुट गया है । बाहुअोंका पार्यों में गिरना भावोंकी कठोरता और प्राकृतिकी नीरसताको और बढ़ा देता है। यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि जैनमूर्तियां तपकी कठोरताका प्रतीक हैं और इनकी शुष्कता सर्वथा अचेतन नहीं है। तीर्थंकरोंकी एक विशिष्ट प्रकारकी मूर्ति प्रतिमा सर्वतो भद्रिका' नामसे विख्यात है। यह मूर्ति चतुमुखी होती है, वर्गाकार इसका रूप होता है। इसमें चारों ओर तीर्थंकर खड़ी अथवा बैठी मुद्रामें बने होते हैं । इसके आधारके चारों किनारों पर उपासकों की प्राकृतियां उत्कीर्ण होती हैं । इसमें से एकका मस्तक नागके फणोंकी छायामें प्रदर्शित होता है । यह श्राकृति सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व नाथ अथवा तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है । इस प्रकारकी अनेक 'सर्वतो भद्रिका' प्रतिमाएं मथुरा और लखनऊके संग्रहालयोंमें संग्रहीत हैं । कुषाण और गुप्तकालीन मूर्तियों में विभिन्न तीर्थंकरोंकी विशेषताएं साधारणतया नहीं दी होती हैं । नागफणों वाला लक्षणमात्र जहां तहां मिल जाता है, हां नीचेके अभिलेखोंमें प्रायः मूर्तिके तीर्थंकर का नाम खुदा होता है।
चिन्ह तथा आयागपट• मध्यकालीन जिन-मूर्तियोंके आधार पर अधिकतर एक विशिष्ट 'चिन्ह' (लाञ्छन ) बना होता है जिससे उनके तीर्थंकरोंकी संज्ञा स्पष्ट हो जाती है। प्रथम तीर्थंकर श्रादिनाथ अथवा ऋषभनाथ
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