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मथुराके प्राचीन टीले श्री प्रा० भगवतशरण उपाध्याय, एम. ए.
इस लेखका उद्देश्य मथुराके प्राचीन टीलोंकी खुदाइयोंसे प्रादुर्भूत कलानिधियों; विशेष कर जैन भग्नावशेषोंका सिंहावलोकन है । यह उचित ही है कि मथुरा-सी प्राचीन नगरीका संबंध भारतीय पुरातत्त्व और कलाके अनेक स्तरोंसे रहा हो। यद्यपि अत्यन्त प्राचीन महाभारत कालके श्रानुवृत्तिक अवशेष वहां नहीं मिलते परन्तु भारतीय गौरवकालकी कलाके सारे विशिष्ट स्तर वहां मिल गये है । इन स्तरों में वैदिक, जैन, बौद्ध, सभी धर्मों की प्रतिमाएंबड़ी संख्यामें उपलब्ध हुई हैं। इनमें जैनकलाका तो मथुरा मुख्य केन्द्र बन गयी थी। कटरा-टीलेकी खुदाइयां--
१८५३ की जनवरीमें जेनरल सर अलेक्जेंडर कनिंघमको कटरामें कुछ स्तंभ-शिखर (Capital ) और स्तंभ मिले । इनमेंसे एक तो वेष्टनी स्तंभ पर उत्कीर्ण नारी मूर्तिका अवशेष था । उस नारी मूर्तिको वृक्षके नीचे खड़ी होनेके कारण उस पुरातत्त्वविद्ने भ्रमवश 'साल वृक्षके नीचे खड़ी माया' कही । उसी समय उस विद्वानको गुप्तकालीन (प्रायः ४९० ई० का ) एक भग्न अभिलेख भी मिला जिसमें चन्द्रगुप्त द्वितीय तक की गुप्त-वंशावलि दी हई थी।
१८६२ ई० में कनिंघमने खोजका काम फिर शुरू किया। उसी कटरा-टीलेसे उन्हें एक सुन्दर अनेक दृश्योंसे उत्कीर्ण तोरण द्वार मिला । इस कालकी सबसे महत्त्वपूर्ण अभिप्राप्ति एक खड़ी बुद्ध प्रतिमा थी । इस पर के ( ५४९.५० ई० ) लेखसे सिद्ध है कि इस मूर्तिको 'बौद्ध परिव्राजिका जयभट्टा ने यशविहारको दान किया था' । इस मूर्तिसे यह भी सिद्ध है कि इस स्थानपर कभी 'यश' नामका बौद्ध विहार अवस्थित था और वह कमसे कम छठी शती ईस्वोके मध्यतक जीवित रहा। बादमे इसके भग्न
आधार पर केशवदेवका विष्णु-मन्दिर खड़ा हुआ जिसका हवाला विदेशी यात्री ट्रैवर्नियर, बर्नियर और मनुक्चीने अपने भ्रमण वृत्तान्तोंमें दिया है । औरङ्गजेबने इस मन्दिरको गिराकर इसके भग्नावशेषपर मस्जिद बनवायी । उस प्राचीन मन्दिरकी अधोरेखा (आसन) आज भी देखी जासकती है। बौद्ध मूर्ति अब लखनऊके संग्रहालयमें सुरक्षित है। इस स्थलको 'कटरा-केशवदेव' कहते हैं।
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