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कौल धर्मका परिचय
श्री डा० प्रा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, एम० ए०, पीएच० डी०
___महाकवि राजशेखरका समय लगभग ६०० ई० माना जाता है। इनके प्राकृत नाटक 'कर्पूरमञ्जरी'' में इन्द्रजालिक भैरवानन्दके मुखसे कुछ ऐसी बातें सुननेको मिलती हैं जिनमें 'कौल धर्म' के विषयमें आकर्षक तथा निहित हैं । 'अपने गुरुओंके प्रसादसे कौलधर्मके अनुयायी मंत्र, तंत्र तथा ध्यानके लिए कष्ट नहीं करते थे । खान-पान तथा विषय भोगमें भी उनके यहां कामाचार चलता था। वे भीषण कुलटा युवतीसे विवाह करते थे, मांस भक्षण उनके लिए सहज था तथा मदिरा तो ग्राह्य थी ही। वे भिक्षान्नका भोजन करते थे, तथा चर्मखण्ड ही उनकी शय्या थी । भगवान् ब्रह्मा तथा विष्णुने ध्यान, वेद-शास्त्रोंका अध्ययन तथा यज्ञ-यागादिका मुक्ति प्राप्तिके साधन रूपसे उपदेश दिया हो गा किन्तु उनका श्रादर्श देव उमापति इस दिशामें अद्भुत है; क्योंकि उन्होंने मदिरापान तथा स्त्री-संभोग द्वारा ही मुक्तिका उपदेश दिया है । जैसा कि कर्पूरमञ्जरीके निम्न उद्धारणोंसे स्पष्ट है
मंताण तंताण ण किं पि जाणे झाणं च णो कि पि गुरुप्पसाया। मज्ज पिश्रामो महिलं रमामो मोक्खं च जामो कुलमग्गलग्गा ॥
रंडा चंडा दिक्खिा धम्मदारा, मज्जं मंभं पिञ्जरा खजराश्र। भिक्खा भोज्जं चम्म खंडं च सेजा कोलो धम्मो कस्स णो-भाइ रम्भो ।। मुत्ति भणंति हरि ब्रह्ममुहा वि देवा झाणेण वेअपढणेण कउक्किाहिं । एक्केण केवल मुमादइएण दिह्रो
मोक्खो समं सुरश्र केलि सुरारसेहिं ॥ 'पृथ्वी पर चन्द्रमाको ले पानेकी, सूर्यको मध्य अाकाशमें कीलित कर देनेकी तथा स्वर्गीय यक्ष, सिद्ध, देव तथा अप्सराओंको नीचे ले पानेकी' भैरवानन्दकी गर्वोक्ति भी इसी धारामें है
१. कोनो द्वारा सम्पादित हरवार्ड मालाके केम्ब्रिज हस्तलिखित ग्रन्थ ( १९०१) २ कपूरमञ्जरी १, २२-२४ ।
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