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वर्णी- श्रभिनन्दन ग्रन्थ
शतीके मध्य में निश्चित किया जा सकता है । क्योंकि संभाण्ड एक दूसरे शैवाचार्य 'तिरुनत्रुकरसार' अथवा लोकप्रसिद्ध अय्यारका समकालीन था, परन्तु संभाण्ड 'अय्यार' से कुछ छोटा था । और अय्यरने नरसिंहवर्मा के पुत्रको जैनीसे शैव बनाया था। स्वयं अय्यार पहले जैनधर्मकी शरण में आया था और उसने अपने जीवनका पूर्वभाग सिद्ध जैन विद्या के केन्द्र तिरुप्पदिरिपुलियारके विहारोंमें व्यतीत किया था । इस प्रकार प्रसिद्ध ब्राह्मण श्राचार्य संभाण्ड और अय्यार के प्रयत्नोंसे, जिन्होंने कुछ समय पश्चात् अपने स्वामी तिलकवथिको प्रसन्न करनेके हेतु शैव-मतकी दीक्षा ले ली थी, पाण्ड्य और पल्लव राज्यों में जैनधर्म
उन्नतिको बड़ा धक्का पहुंचा। इस धार्मिक संग्राम में शैवोंको वैष्णव अलवारों से विशेषकर 'तिकमलिसैप्पिरन्' और ‘तिरुमंगई’ अलवारसे बहुत सहायता मिली, जिनके भजनों और गीतोंमें जैनमत पर घोर कटाक्ष हैं । इस प्रकार तामिल - देशों में नम्मलवार के समय में ( १० वीं शती ई० ) जैनधर्मका अस्तित्व सङ्कटमय रहा |
अर्वाचीन काल
नम्मलवारके अनन्तर हिन्दू धर्मके उन्नायक प्रसिद्ध श्राचार्योंका समय है । सबसे प्रथम शंकराचार्य हुए, जिनका उत्तरकी ओर ध्यान गया । इससे यह प्रकट है कि दक्षिण-भारतमें उनके समय तक जैनधर्मकी पूर्ण अवनति हो चुकी थी । तथा जब उन्हें कष्ट मिला तो वे प्रसिद्ध जैनस्थानों श्रवणबेलगोल (मैसूर) टिण्डिवनम् (दक्षिण- अरकाट ), आदि में जा बसे । कुछने गंग राजाओं की शरण ली जिन्होंने उनका रक्षण तथा पालन किया । यद्यपि अब जैनियोंका राजनैतिक प्रभाव नहीं रहा, और. उन्हें सब ओरसे पल्लव, पांड्य और चोल राज्यवाले तंग करते थे, तथापि विद्या में उनकी प्रभुता न्यून नहीं हुई । 'चिन्तामणि' नामक प्रसिद्ध महाकाव्य की रचना तिरुलकतेवर द्वारा नवीं शतीमें हुई थी । प्रसिद्ध तामिल-वैयाकरण पविनन्दि जैनने अपने 'नन्नू ल' की रचना १२२५ ई० में की। इन ग्रन्थों के अध्ययन से पता लगता है कि जैनी लोग विशेषतः मैलापुर, निदुम्बई (?) थिपंगुदी ( तिरुवलूर के निकट एक ग्राम ) और टिण्डिवनम् में निवास करते थे ।
अन्तिम आचार्य श्रीमाधवाचार्य के जीवनकाल में मुसलमानोंने दक्षिण पर विजय प्राप्त की जिसका परिणाम यह हुआ कि दक्षिणमें साहित्यिक, मानसिक और धार्मिक उन्नतिको बड़ा धक्का पहुंचा और मूर्तिविध्वंसकों के अत्याचारों में अन्य मतावलम्बियों के साथ जैनियोंको भी कष्ट मिला । उस समय जैनियोंकी दशाका वर्णन करते हुए श्रीयुत वार्थ सा० लिखते हैं कि 'मुसलमान - साम्राज्य तक जैनमतका कुछ कुछ प्रचार रहा । किन्तु मुसलिम साम्राज्यका प्रभाव यह पड़ा कि हिन्दू-धर्मका प्रचार रुक गया, और यद्यपि उसके कारण समस्त राष्ट्रकी धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक अवस्था अस्तव्यस्त हो गयी, तथापि साधारण अल्प संस्थानों, समाजों और मतोंकी रक्षा हुई ।'
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