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तामिल-प्रदेशोंमें जैनधर्मावलम्बी जाता है कि उक्त ब्राह्मण वैयाकरण ईसासे ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान हो गा। विद्वानोंने द्वितीय संघका काल ईसाकी दूसरी शती निश्चय किया है । अन्तिम संघके समयको अाजकल इतिहासज्ञ लोग ५ वी, ६ ठीं शती में निश्चय करते हैं । इस प्रकार सब मतभेदोंपर ध्यान रखते हुए ईसाकी ५ वीं शतीके पूर्वसे लेकर ईसाके अनन्तर ५ वीं शती तकके कालको हम संघ-काल कह सकते हैं। अब हमें इस बातपर विचार करना है कि इस कालके रचित कौन ग्रन्थ जैनियोंके जीवन और कार्योंपर प्रकाश डालते हैं।
सबसे प्रथम, 'थोलकपियर' संघ-कालका आदि लेखक और वैयाकरण है। यदि उसके समयमें जैनी लोग कुछ भी प्रसिद्ध होते तो वह अवश्य उनका उल्लेख करता, परन्तु उसके ग्रन्थोंमें जैनियोंका कोई वर्णन नहीं है । शायद उस समय तक जैनी उस देशमें स्थायी रूपसे न बसे हों गे अथवा उनका पूरा ज्ञान उसे न हो गा। उसी कालमें रचे गये ‘पथुपाटुं' और "एटुथोगाई” नामक काव्योंमें भी उनका वर्णन नहीं है, यद्यपि उपयुक्त ग्रन्थोंमें विशेष कर ग्रामीण जीवनका वर्णन है ।
दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ महात्मा 'तिरुवल्लुवर' रचित 'कुरल' है, जिसका रचना-काल ईसाकी प्रथम शती निश्चय हो चुका है । 'कुरल' के रचयिताके धार्मिक-विचारोंपर एक प्रसिद्ध सिद्धान्तका जन्म हुआ है । कतिपय विद्वानोंका मत है कि रचयिता जैन धर्मावलम्बी था । ग्रन्थकर्ताने ग्रन्थारम्भमें किसी भी वैदिक देवकी वन्दना नहीं की है बल्कि उसमें 'कमल-गामी' और 'अष्टगुणयुक्त' आदि शब्दोंका प्रयोग किया है । इन दोनों उल्लेखोंसे यह पता लगता है कि ग्रन्थकर्ता जैनधर्मका अनुयायी था । जैनियोंके मतसे उक्त ग्रन्थ 'एलचरियार' नामक एक जैनाचार्य की रचना है' । और तामिल काव्य 'नीलकेशी' का जैनी भाष्यकार 'समयदिवाकर मुनि' 'कुरल'को अपना पूज्य-ग्रन्थ कहता है। यदि यह सिद्धान्त ठीक है तो इसका यही परिणाम निकलता है कि यदि पहले नहीं तो कमसे कम ईसाकी पहली शतीमें जैनी लोग सुदूर दक्षिणमें पहुंचे थे
और वहांकी देशभाषामें उन्होंने अपने धर्मका प्रचार प्रारम्भ कर दिया था। इस प्रकार ईसाके अनन्तर प्रथम दो शतियोंमें तामिल प्रदेशोंमें एक नये मतका प्रचार हुअा, जो बाह्याडम्बरोंसे रहित और नैतिक सिद्धान्त होनेके कारण द्राविड़ियोंके लिए मनोमुग्धकारी हुआ । आगे चलकर इस धर्मने दक्षिण भारतपर बहुत प्रभाव डाला । देशी भाषाओंकी उन्नति करते हुए जैनियोंने दाक्षिणात्योंमें आर्य विचारों और
आर्य-विद्याका अपूर्व प्रचार किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि द्राविड़ी साहित्यने उत्तर भारतसे प्राप्त नवीन सन्देशकी घोषणा की । मि० फ्रेज़रने अपने “भारतके साहित्यक इतिहास' (A Literary History of India') नामक पुस्तकमें लिखा है कि यह जैनियों हो के प्रयत्नोंका फल था कि दक्षिणमें नये आदर्शों नये साहित्य और नये भावोंक। सञ्चार हुआ ।” उस समयके द्राविड़ोंकी उपासनाके विधानों पर विचार करनेसे यह अच्छी तरह से समझमें आ जायगा कि जैनधर्मने उस देशमें
१ लचरियार, पलाचार्य अथवा इलाचार्यका तद्देशीय रूप प्रतीत हाता है। यह नाम जन युगाचार्य कुम्द दुन्द स्वामीव.सपर नाम था !
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