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राष्ट्रकूट कालमें जैनधर्म
जैन राष्ट्रकूट राजा
राष्ट्रकूट राजाओंमें भी अमोघवर्ष प्रथम वैदिक धर्मानुयायीकी अपेक्षा जैन ही अधिक था। श्राचार्य जिनसेनने अपने 'पाश्र्वाभ्युदय' काव्यमें 'अपने आपको उस नृपतिका परम गुरू लिखा है, जो कि अपने गुरू पुण्यात्मा मुनिराजका नाम मात्र स्मरण करके अपने आपको पवित्र मानता था' ।' गणितशास्त्रके ग्रन्थ 'सारसंग्रह' में इसबातका उल्लेख है कि 'अमोघ वर्ष' स्याद्वाद धर्मका अनुयायी था । अपने राज्यको किसी महामारी से बचानेके लिए अमोघवर्षने अपनी एक अंगुली की बली महालक्ष्मीको चढ़ायी थी । यह बताता है कि भगवान् महावीरके साथ साथ वह वैदिक देवताओंको भी पूजता था । वह जैनधर्मका सक्रिय तथा जागरूक अनुयायी था । स्व० प्रा० राखाल दास बनर्जीने मुझे बताया था कि बनवासीमें स्थित जैनधर्मा यतनोंने अमोघवर्षका अपनी कितनी ही धार्मिक क्रियाओंके प्रवर्तकके रूपमें उल्लेख किया है। यह भी सुविदित है कि अमोघवर्ष प्रथमने अनेक बार राजसिंहासनका त्याग कर दिया था। यह बताता है कि वह कितना सच्चा जैन था । क्यों कि सभवतः कुछ समय तक 'अकिञ्चन' धर्मका पालन करनेके लिए ही उसने यह राज्य त्याग किया हो गा। यह अमोघवर्षकी जैनधर्म-आस्था ही थी जिसने आदिपुराणके अन्तिम पांच अध्यायोंके रचयिता गुणभद्राचार्यको अपने पुत्र कृष्ण द्वितीयका शिक्षक नियुक्त करवाया था । मूलगुण्डमें स्थित जैन मन्दिरको कृष्णराज द्वितीयने भी दान दिया था" फलतः कहा जा सकता है कि यदि वह पूर्णरूपसे जैनी नहीं था तो कमसे कम जैनधर्म का प्रश्रयदाता तो था ही । इतना ही इसके उत्तराधिकारी इन्द्र तृतीयके विषयमें भी कहा जा सकता है । दानवुलपदुई शिलालेखमें लिखा है कि महाराज श्रीमान् नित्यवर्ष ( इन्द्र तृ.) ने अपनी मनोकामनाओंकी पूर्तिकी भावनासे श्री अर्हन्तदेवके अभिषेकमंगलके लिए पाषाणकी वेदी (सुमेरू पर्वतका उपस्थापन) बनवायी थी । अन्तिम राष्ट्रकूट राजा इन्द्र चतुर्थ भी सच्चा जैन था । जब वह बारम्बार प्रयत्न करके भी तैल द्वितीयसे अपने राज्यको वापस न कर पाया तब उसने अपनी धार्मिक आस्थाके अनुसार सल्लेखना व्रत धारण करके प्राण त्याग कर दिया था। जैन सामन्त राजा--
राष्ट्रकूट नृपतियोंके अनेक सामन्त राजा भी जैन धर्मावलम्बी थे । सौनदत्तिके रह शासकोंमें लगभग सबके सब ही जैन धर्मावलम्बी थे । जैसा कि राष्ट्रकूट इतिहासमें लिख चुका हूं अमोघवर्ष प्रथमका
१. इ. एण्टी. भा. ७ पृ. २१६--८ । २. विण्टर नित्शका 'शीची' भा. ३ पृ. ५७५ । ३. एपी. इ. भा. १८ पृ. २४८ । ४. जर्नल ब. ब्रा. रो. ए. सो., भा. २२ पृ. ८५ । ५. , , , भा. १० पृ. १८२ । ६. आर्के० सर्वे० रि. १९०५-६ पृ. १२१-२। ७. इ. एण्टी. भा. २३ पृ. १२४ । २६
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