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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
प्रतिनिधि शासक बङ्केय' भी जैन था । यह बनवासीका शासक था अपनी राजधानीके जैनधर्मायतनोंको एक ग्राम दान करने के लिए इसे राजाज्ञा प्राप्त हुई थी । बङ्केयका पुत्र लोकादित्य जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट धर्मका प्रचारक था; ऐसा उसके धर्म गुरू श्री गुणचन्द्र ने भी लिखा है । इन्द्र तृतीयके सेनापति श्रीविजय' भी जैन थे इनकी छत्र छाया में जैन साहित्यका पर्याप्त विकास हुआ था ।
उपर्युल्लिखित महाराज, सामन्त राजा, पदाधिकारी तो ऐसे हैं जो अपने दान-पत्रादिके कारण राष्ट्रकूट युगमें जैनधर्म प्रसारक के रूपसे ज्ञात हैं, किन्तु शीघ्र ही ज्ञात हो गा कि इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक जैन राजा इस युगमें हुए थे । इस युगने जैन ग्रन्थकार तथा उपदेशकों की एक खण्ड सुन्दर माला ही उत्पन्न की थी । यतः इन सबको राज्याश्रय प्राप्त था फलतः इनकी साहित्यिक एवं धर्मप्रचारकी प्रवृत्तियोंसे समस्त जनपद पर गम्भीर प्रभाव पड़ा था । बहुत संभव है इस युगमें रह जनपदकी समस्त जनसंख्याका एक तृतीयांश भगवान महावीरकी दिव्यध्वनि (सिद्धान्तों) का अनुयायी रहा हो । अलबरूनीके ४ उद्धारणोंके आधार पर रशीद-उद-दीनने लिखा है कि कोंकण तथा थानाके निवासी ई० की ग्यारहवीं शतीके प्रारम्भमें समनी ( श्रमण अर्थात बौद्ध ) धर्मके अनुयायी थे । अल इदरिसीने नहरवाला (नहिल पट्टन ) के राजाको बौद्ध धर्मावलम्बी लिखा है । इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि जिस राजाका उसने उल्लेख किया है वह जैन या, बौद्ध नहीं । अतएव स्पष्ट है कि मुसलमान बहुधा जैनोंको बौद्ध समझ लेते थे । फलतः उपर्युल्लिखित रशीद उद दीनका वक्तव्य दक्षिण कोंकण तथा थाना भागों में दशमी तथा ग्यारहवीं शतके जैनधर्म- प्रसारका सूचक है बौद्ध धर्मका नहीं । रराष्ट्रकूट कालकी समाप्तिके उपरान्त ही लिंगायत सम्प्रदाय के उदयके कारण जैनधर्मको अपना बहुत कुछ प्रभाव खोना पड़ा था क्यों कि किसी हद तक यह सम्प्रदाय जैनधर्मको मिटाकर ही बढ़ा था ।
जैन संघ जीवन
इस काल के अभिलेखों से प्राप्त सूचना के आधार पर उस समय के जैन मठोंके भीतरी जीवनकी एक झांकी मिलती है । प्रारम्भिक कदम्ब" वंशके अभिलेखोंसे पता लगता है कि वर्षा ऋतु (चतुर्मास ) अनेक जैन साधु एक स्थान पर रहा करते थे । इसीके ( वर्षा के ६ ) अन्तमें वे सुप्रसिद्ध जैन पर्व पर्या मनाते थे । जैन शास्त्रों में पर्यापणका बड़ा महत्व है । दूसरा धार्मिक समारोह फाल्गुन शुक्ला अष्टमी से
१. हिष्ट्री ओ० दी राष्ट्रकूटस् पृ. २७२-३ ।
२. एपी. इ. भा. ६ पृ. २९ ।
३. एपी. ई. भा. १० पृ. १४९ ।
४. इलियट, १. पू. ६८ ।
५, १. एण्टी. भा. ७ पृ. ३४
६. एन एपीटोम ओफ जैनिज्म पृ. ६७६-७ ।
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