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जैनधर्म तथा सम्पत्ति -
श्री प्रा० गोरावाला खुशाल जैन, एम० ए०; साहित्याचार्य, आदि,
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इस चतुर्वर्ग समन्वित मनुष्य जीवनमें धर्म प्रधान है क्योंकि अन्ततोगत्वा वही मोक्षका साधक होता है । अर्थ तथा काम उसके साधक अंग हैं जैसा कि "तीनोंके परस्पर विरोधी सेवन द्वारा ही मानव जीवनके दिन सार्थक होते हैं कथन से स्पष्ट है। यही कारण है कि जैन साहित्य में जीव- उद्धार, आत्म-विद्या या धर्मशास्त्रकी बहुलता है ।
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कवि कल्पना के सुकुमार विलास काव्य भी इससे अछूते नहीं हैं । किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि जैन साहित्यने मानव जीवनकी उपेक्षा करके केवल ऊपर ( स्वर्ग, मोक्ष ) अथवा नीचे (नरक) देखनेकी ही शिक्षा दी है तथा खोंके सामने खड़े संसारकी उपेक्षा की है । "अपने भले के लिए उत्सुक किसी होनहार व्यक्तिने शान्त सुन्दर वनमें बैठे मूर्तिमान दर्शन-ज्ञान- चरित्र गुरूजी से पूछा 'भगवन ! मेरा भला किसमें है ? उत्तर मिला श्रात्यन्तिक स्वतंत्रता (मोक्ष) में वह कैसे हो ? सच्ची दृष्टि, ज्ञान तथा चरित्र द्वारा । यह तीनों कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? तत्त्वोंके श्रद्धान, ज्ञान तथा
श्राचरण द्वारा तत्त्व क्या हैं? चेतन तथा अचेतन, उनका श्राकर्षण, सम्बन्ध, विरक्ति, वियोग तथा श्रात्म स्वरूपप्राप्ति ये सात तत्त्व है ?" इस प्रकार जैन धर्म शास्त्रको देखने पर ज्ञात होता है कि इन्होंने "जीवकी जीविका तथा जीव उद्धार" का सांगोपांग प्रतिपादन किया है । मनुष्य संसार ही में न फंस जाय इसलिए उन्होंने अपने व्याख्यानोंमें ही मुक्तिको प्रधानता नहीं दी अपितु संसार तथा मोक्ष के प्ररूपक शास्त्रको भी धर्मशास्त्र ही नाम दिया । फलतः प्राणिशास्त्र, भूगोल, भौतिक, आदि विविध विज्ञान, जीवकी सम्पत्ति, राज्य, आदि समस्त व्यवस्थाएं धर्मशास्त्र से अनुप्राणित हैं और धर्मशास्त्र के अंग हैं। उदाहरणार्थ श्राजके युगकी प्रधान समस्या सम्पत्तिको लीजिये -स्थूल दृष्टि से देखने पर कोई 'जैन सम्पत्ति शास्त्र' ऐसी पुस्तक नहीं मिलती और कहा जा सकता है कि
१ " अहानि यान्ति त्रयसेवयैव ।” सागारधर्मा० १,१५ ।
२ प्रत्येक काव्यमें नायक आदर्श गृहस्थ जीवनसे विरक्त होता है और तप करके ज्ञानको पूर्ण करता है तथा धर्मोपदेश देता है । दृष्टव्य पुरुषदेव चम्पू, धर्मशर्माभ्युदय, आदि अनेक काव्य ।
३ आचार्य पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धिकी उत्थानिका पृ० १ तथा मोक्षशास्त्र, आदि ।
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