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जैनधर्मका श्रादि देश
से गिने जाते हैं और उसके बाद ज्येष्ठा (सबसे बड़ा), अदि आते हैं। उत्तर वैदिक-युग तक नक्षत्रोंकी सूची कृत्तिकासे प्रारम्भ होती थी । इसके उपरान्त सरस्वती नदी तथा राजस्थानका समुद्र विलीन हो गया और इनकी जलराशिका बहुभाग गंगा तथा जमुनामें वह गया । इन सबके आधार पर वसन्तके सम दिन-रातके मूल नक्षत्रमें पड़नेका समय १६६८० ई० पू. का सूचक है । भूगर्भशास्त्र सम्बन्धी तथा ज्योतिषशास्त्रीय प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि आर्य लोग अत्यन्त प्राचीन युगमें भी सरस्वती देशके प्रभु थे । हिम युग ( Wurm ) जिसके विस्तारका समय अब तक प्राप्त विवेचनोंके स्थूल निष्कर्षके आधार पर ८०००० से ५०००० इ० पू० के बीच में समझा जाता है; उसके बाद एक पावसोत्तर ( वर्षा के बादका ) युग आया था जो २५००० ई० पू० तक रहा होगा।
यह सब निष्कर्ष यूरोपके लिए ठीक बैठते हैं तथा भारतमें उष्ण जलवायु इससे काफी पहले प्रारम्भ हो गयी हो गी । यूरोपमें भी इस समय तक मानव समाज पूर्व-पाषण युग तथा, अधम, मध्य एवं उत्तम पाषाण-युगको पार कर चुका था । तथा ५०००० ई० पू० तक यूरोपकी मूसरिन (प्रारम्भिक पाषण), ग्रेवेशियन (मध्य पाषाण) तथा मेगडैलिनियन (अन्तिम पाषाण) संस्कृतियां भी समाप्त हो चुकी थीं । सबसे पहिले मनुष्य ( Homo Pekeniensis ) का आविर्भाव हिम प्रवाह (Glacial ) युगके प्रारम्भमें हुअा होगा जिसका समय ल० ५.००००० ई० पू० अांका जाता है, फलतः कह सकते हैं कि मानवका विकास उष्ण प्रदेशोंमें अधिक वेगसे हुआ होगा। वैदिक आर्यों, जैनों तथा बौद्धोंका पुरातत्त्व इस प्रकार हमें २०००० ई० पू० तक ले जाता है तथा इनका आदि-देश भारतवर्षमें ही होना चाहिये जोकि उस समय ४० अक्षांश तक फैला था । यह अत्यन्त आवश्यक है कि जैनधर्मके विद्यार्थी 'सुषुमा दुष्षमा' कल्पों तथा तीर्थंकरोंकी जीवनीमें आनेवाले विविध अख्यानोंका गम्भीर अध्ययन करके निम्म वाक्यको सार्थक करें ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ।
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