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जैनधर्मका श्रादि देश
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पञ्च वार्षिक युगकी व्यवस्था वैदिक पञ्चाङ्गमें भी पायी जाती है। जैन ग्रन्थोंमें ( सूर्य-घड़ी की ) कील तथा दोनों ( उत्तर, दक्षिण ) अयनोंमें होनेवाली उसकी छायाके प्रमाणका विषम वर्णन मिलता है । दक्षिणायनके प्रथम दिन चौवीस अंगुल ऊंची शंकुकी छाया भी २४ अंगुल हो गी। इसके श्रागे प्रत्येक सौरमासमें इस छायाका प्रमाण चार अंगुल बढ़ता ही जाता है। यह वृद्धि उत्तरायणके प्रथम दिन तक होती ही रहती है और उस दिन प्रारम्भिक प्रमाणसे दूनी अर्थात् अड़तालीस अंगुल हो जाती है। इसके बाद उसमें हानि प्रारम्भ होती है तथा हानि की प्रक्रिया वृद्धि के समान हो रहती है। काल लोकप्रकाशके अनुसार प्रत्येक युगके पांच वर्ष में दक्षिणायनके प्रथम दिनसे वृद्धिका क्रम निम्न प्रकार हो गाप्रथम वर्ष-श्रावण बहुल १-२ पाद (४८ अङ्गुल )
माघ , ७-४ पाद (४८ अङ्गुल ) द्वितीय वर्ष-श्रावण
,, ( २४ , ) ___ माघ शुद्ध १ तृतीय वर्ष-श्रावण ,
माघ बहुल १ चतुर्थ वर्ष-श्रावण शुद्ध ७
(२४ बहुल पञ्चम पर्ष-श्रावण शुद्ध ४ , (२४ , )
___ माघ , १० , (४८ , )
वैदिक साहित्यमें युग-चक्रके वर्षों को संवत्सर, परिवत्सर, अनुवत्सर, इद्वत्सर तथा ईड़ावत्सर अथवा संवत्सर, परिवत्सर, ईड़ावत्सर, इद्वत्सर तथा वत्सर नामोंसे उल्लेख किया है। 'वृषाकपि ऋक' की व्याख्या विद्वानोंके लिए जटिल समस्या रही है। किन्तु जैसा कि मैं स्पष्ट दिखा चुका हूं कि यह ऋक् प्रातः, मध्याह्न, गोधूलि तथा रात्रि रूप दिनके चार भागोंका स्पष्ट उल्लेख करती है । इनकी स्थिति को इन्द्राणी, इन्द्र, वृषाकपि तथा वृषाकपायी' इन चार प्रतीकों द्वारा व्यक्त किया गया है। इस प्रकरणमें बतायी गयी लम्बा गोधूलि तथा संध्या ४० अक्षांशके स्थान पर ही संभव है । इसका समर्थन निदानसूक्त के निम्न उद्धारणसे भी होता है—“अग्निष्टोम यज्ञमें बारह स्तोत्रा तीन मुहूर्तों को अतिक्रान्त नहीं करते हैं अतएव सबसे छोटे दिनका प्रमाण केवल बारह मुहूर्त होता है। सूर्यप्रज्ञप्तिका यह कथन कि बड़ेसे बड़ा दिन १८ मुहूर्त का होता है यह ऋक्के उक्त कथनसे सर्वथा मिलता जुलता है ।
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(४८
माघ
(४८
१ ऋक्वेद १०-७-२ । अथर्ववेद १०-१२६ । २ अध्याय ९ सू७ । ३-९ घटा ३६ मि०।४-१४ घंटा २४ मि०।
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