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जैनधर्मका आदि देश
श्री प्रा० एस० श्रीनीलकण्ठ, शास्त्री, एम्० ए० सुप्रचलित भ्रान्ति--
'जैनधर्म भी बौद्धधर्मके समान वैदिक कालके श्रार्योंकी यज्ञ-यागादिमय संस्कृतिकी प्रतिक्रिया मात्र था' कतिपय इतिहासकारोंका इस मतको यों ही सत्य मान लेना चलता व्यवहार सा हो गया है। विशेषकर कितने ही जैनधर्मको तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथके पहिले प्रचलित मानने में भी आनाकानी करते हैं, अर्थात् वे लगभग नौवीं शती ईसा पूर्व तक ही जैनधर्म मानना चाहते हैं। प्राचीनतम युगमें मगध यज्ञयागादि मय वैदिक मतके क्षेत्रसे बाहर था। तथा इसी मगधको इस कालमें जैनधर्म तथा बौद्ध धर्मकी जन्मभूमि होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। फलतः कितने ही विद्वान् कल्पना करते हैं कि इन धर्मों के प्रवर्तक आर्य नहीं थे । दूसरी मान्यता यह है कि वैदिक आर्यों के बहुत पहले आर्योंकी एक धारा भारतमें
आयी थी और आर्य पूरे भारतमें व्याप्त हो गये थे । उसके बाद उसी आर्य वंशके यज्ञ-यागादि संस्कृति वाले लोग भारतमें आये, तथा प्राचीन अ-वैदिक आर्यों को मगधकी ओर खदेड़कर स्वयं उनके स्थान पर बस गये । आर्योंके इस द्वितीय आगमनके बाद ही संभवतः मगधसे जैनधर्मका पुनः प्रचार प्रारम्भ हुआ तथा वहीं पर बुद्ध धर्मका प्रादुर्भाव हुआ है। सिन्धु-कछार-संस्कृति
३०००२- ५०० ईसा पूर्वमें फूली फली 'सिन्धुकछार सभ्यता' के भग्नावशेषोंमें दिगम्बर मत, योग, वृषभ-पूजा तथा अन्य प्रतीक मिले हैं, जिनके प्रचलन का श्रेय आर्यों अर्थात् वैदिक आर्योंके पूर्ववर्ती समाजको दिया जाता है । 'आर्य-पूर्व' संस्कृतिके शुभाकांक्षियोंकी कमी नहीं है; यही कारण है कि ऐसे लोगोंमें से अनेक लोग वैदिक आर्योंके पहलेकी इस महान संस्कृतिको दृढ़ता पूर्वक द्रविड़-संस्कृति कहते है । मैंने अपने "मूल भारतीय धर्म' शीर्षक निबन्धमें सिद्ध कर दिया है कि तथोक्त अवैदिक लक्षण ( यज्ञ-यागादि ) का प्रादुर्भाव अथर्ववेदकी संस्कृतिसे हुआ है । तथा मातृदेवियों, वृषभ, नाग, योग, आदिकी पूजाके बहुसंख्यक निदर्शनोंसे तीनों वेद भरे, पड़े हैं। फलतः 'सिन्धु कछार संस्कृति पूर्व
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