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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
परिग्रह परिमाणके पोषक
प्रश्न हुआ कि अहिंसा, आदि व्रतोंके पुष्ट करनेके लिए क्या करना चाहिये ? उत्तर मिला ठीक है उनको दृढ़ करने के लिए पांच, पांच भावनाएं हैं । पञ्चम व्रतको पुष्ट करने लिए 'पांचों इन्द्रियोंके प्रिय तथा प्रिय भोग्य विषयोंके उपस्थिति होनेपर प्रिय विषयों में श्रासक्त न होना तथा प्रिय विषयोंसे श्राकुल अथवा उद्वेजित न होना इन पाचों भावनाओं का होना आवश्यक है । इसके अतिरिक्त हिंसा, दि समान परिग्रहको भी अभ्युदय तथा निश्रेयसके लिए आवश्यक क्रियायों एवं साधनों का नाशक (पाय ) निन्दनीय ( वद्य ) तथा दुःखों का कारण अथवा दुःखमय ही मानना चाहिये । प्रवृत्ति परक भी साधक हैं--प्राणिमात्रको 'मित्र समझना, गुणियोंको देखकर प्रमुदित होना, दुखियोंपर करुणा भाव रखना तथा अशिष्ट उन्मार्ग गामियों के प्रति तटस्थताकी भावना रखनेसे भी व्रत पुष्ट होता है" ।
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पोषकों की यह व्यवस्था पहिले तो यह बताती है कि “मनसा वाचा कर्मणा" सांसारिक विषयोंके प्रति कैसा भाव रखना उचित है, परिग्रही भी उतना ही पापी तथा निन्दनीय है जितना हत्यारा, ठग, चोर तथा व्यभिचारी है. परिग्रह अपने तथा दूसरोंके दुखका कारण भी है दूसरोंको दुःख न हो भाव ही मैत्री है, तब परिग्रह परिमाणके साथ साथ हजारों श्रमिकों, कृषकों श्रादिको कंकाल बना देना कैसे चलेगा ! गुणियों के प्रति भक्ति तथा अनुराग ही प्रमोद है तो परिग्रही ( जोकि 'हत्यारे' के समान भीषण आज नहीं लगता ) की प्रशंसा, श्रादर आदि ही नहीं उन्हें समाज, देशका कर्णधार बना देना कैसे वीर प्रभुका मार्ग होगा ? अनुग्रहका भाव ही कारुण्य है ऐसी स्थितिमें, तटस्थ बहुजन समुदायको जाने दीजिये किन्तु क्या परिग्रही साधर्मी अपने श्रमिकों, आदि की दीन हीन दशाको भी नहीं जानते १ यदि जानते हैं तो उनकी कमायी को अपने अहंकार की पूजा, ग्रात्म प्रतिष्ठा, आदिके कार्य में क्यों लगाते है। श्रमिककृषक तो 'पानीमें पियासी मीन' है । उस भूखे रसोइयेके समान है जो पेटपर पत्थर बांधकर ' ' छप्पन भोजन' तयार करता है तब भी परिग्रही सज्जनको अपने पर भी दया नहीं ( अर्थात् नीच पापसे बचना )
ती । यह सब करके भी उनके अज्ञान, शराब, सिनेमा, अपव्ययका राग अलापा जाता है । श्राचर्य तो यह है कि जो उनके जीवनको सर्वथा अभाव ग्रस्त करके उन्हें विपरीतवृत्ति बनानेवाले हैं वे ही उनके
१. " तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च । ” ७-३
२. "मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रिय विषय रागद्वेषवर्जनानि पंच ।" ७,८
३. "हिंसादिष्विहामुत्र, पायावद्य दर्शनम् । ७, ९
४. "दुःखमेव वा।"
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५. "मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थानि च
--सवगुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेषु । " ७, ११
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मोक्ष शात्र ।
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