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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
त्यागकी महिमाका सांगोपांग वर्णन किया है। विवेचनको सूत्रानुसारी होते हुए भी लोकोपयोगी बना देता तो श्राचार्यकी विशेषता ही थी जो कि इसमें स्पष्ट लक्षित होती है।
___पंडिताचार्य अाशांधरजी “चेतन, अचेतन तथा चेतना-चेतन पदार्थोंमें 'मेरा है' इस संकल्पको ग्रन्थ (परिग्रह, उलझन ) कहते हैं। उसको थोड़ा करना ग्रन्थपरिमाण व्रत है। इसके बाद दो पद्यों द्वारा अन्तरंग तथा वहिरंग परिग्रहोंके भेद गिनाये हैं । पूर्वाचार्यों के समान सागारधर्मामृत कार भी 'देश, समय. जाति, आदिको दृष्टि में रखते हुए तथा इच्छाको रोक कर धन, धान्य, श्रादिका मरण पर्यन्त परिमाण करनेका उपदेश देते हैं। वैशिष्ट्य यह है कि एक बार किये गये परिमाणको भी यथाशक्ति पुनः पुनः कम करनेका भी आदेश देते हैं। इस अादेशके बलपर आजकल प्रचलित परिग्रह परिमाणकी प्रथाका कतिपय साधर्मी समर्थन करना चाहेंगे । किन्तु निर्भीक, जागरूक पं० श्राशाधारजी ऐसे धर्मनेताके वक्तव्यकी यह व्याख्या, व्याख्याताके अन्तरंगका प्रतिबिम्ब हो सकती है,पं. अाशाधरजी का संकेत नहीं । 'देश, समय, जात्यादि' पद तो परिमाणकी विगत तथा अप्रमत्तताका स्पष्ट सूचक है । अर्थात् व्रतीको वर्तमान सब क्षेत्रों, उष्ण शीतादि समयों, श्रादि सबकी अवश्यकताका ख्याल करके नियम करना चाहिये तथा इसे भी घटाना चाहिये । वढाना किसी भी अवस्था में जैनधर्म नहीं हो सकता । पंडिताचार्यका यह लक्षण सोमदेव सूरिके "कुर्याच्चेतो निकुञ्चनम् ' का विशद भाष्य सा लगता है । श्री अमृतचन्द्र सूरि का वर्णन भी श्री सोमदेव सूरिके ही समान है । आचार्य शुभचन्द्र ने अपनी महाविरक्ति प्रकाशक शैलीके अनुसार परिग्रहका पूर्वाचार्योंके ही समान होकर भी हृदय द्रुत कर देने वाला निरूपण किया है। ब्रह्मचर्य के पालनके लिए अपरिग्रह अनिवार्य है और परिग्रह होनेसे कामदेव रोका ही नहीं जासकता इस व्रत तथा पापक्रमका "सूर्य अन्धकार मय हो जाय, सुमेरु चञ्चल हो जाय किन्तु परिग्रही जितेन्द्रिय नहीं हो सकता।" तथा परिग्रह "कामरुपी सर्पके लिए वामी है" द्वारा स्पष्ट समर्थन किया है। इस प्रकार अन्य प्राचायाँके
१. योगशात्र २, १०६ से ११५ तथा स्त्रोपज्ञ टीका। २. सागारधर्मामृत ४, ५९। ३. उद्यत्क्रोधादि हास्यादि षट्क वेद त्रयात्मकम् (मिथ्यात्व सहितम् ) सा. ४.६० ४. क्षेत्रं, धान्य, धनं वस्तु, कुप्यं शयनमासनम् । द्विपदा पश्वो भाण्ड वाह्या दश परिग्रहाः। (यशस्तिलक उत्त.
पृ. ३६६) ५. "परिमितमपि शक्तितः पुनः कृशयेत् ।” सागरध० ४.६२ । ६. यशस्तिलक चम्पू उत्त० पृ. ३६६ । ७. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय कारिका १११-१२८ । ८. ज्ञानार्णव, प्रकरण १६ श्लो १.४२ । ९. "अपि सूर्यस्त्यजेद्धाम स्थिरत्व वा सुराचलः । न पुनः संगसंकीर्णो मुनिः स्यात्संव्रतेन्द्रियः ।। २६ स्मरभोगान्द्र वल्मीकम् ।” ज्ञानार्णव पृ १८० ।
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