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जैनधर्म तथा सम्पत्ति सोमदेवसूरी' हेमचन्द्रसूरि२, पण्डिताचार्य आशाधर, अमृतचन्द्र सूरि', हरिभद्र सूरि५. आदि, प्राचार्योंने उमास्वामिका ही अनुकरण किया है । श्रीहेमचन्द्र सूरि तथा पण्डिताचार्यकी व्याख्याएं गृहस्थों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषणकी दृष्टि से बड़े महत्वकी हैं । पाप प्रवृत्तिमें मनुष्य कैसे अपने आप प्रगति करता है इसका सजीव चित्र इन व्याख्यानोंमें दृष्टिगोचर होता है। पण्डिताचार्यने स्वामी तथा सोमदेव सूरिके अतिचारोंको भी टीका में निर्देश करके अपनी तटस्थता एवं बहुश्रुतताका परिचय दिया है ।
सम्पत्ति त्यागका उपदेश
कितनी सम्पत्ति रखे, अनिवार्य आवश्यकता पूर्ति योग्य ही सम्पत्ति रखनेका अभ्यास कैसे करे तथा सम्पत्ति बढ़ानेकी लालसा अर्थात् उसके दोषोंसे कैसे बचे, इतना प्ररूपण करके ही जैनशास्त्र संतुष्ट नहीं हुआ है ! अपितु पापमय आचरण अर्थात् दूसरेके स्वत्वोंका अपहरण करनेसे रोकनेके लिए कहा है कि संसार तथा शारीरके वास्तविक रूप पर दृष्टि रखे तो वह सुतरां मन्दकषायी अर्थात् अनासक्त रहेगा । इसी संसार शरीरके स्वभावके चिन्तवनका विस्तृत रूप बारह भावनाएं हैं। इनमें भी प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति रूपसे सम्पत्तिका वर्णन अाया है तथापि प्रारम्भिक अाठ भावनात्रोंमें सम्पत्तिके त्यागको विविध दृष्टियोंसे बताया हैं । इन अाठमें भी प्रथम अनित्य भावनामें तो सम्पत्तिकी अनर्थमलकता अनावृत रूपमें चित्रित की गयी है।
अध्रुव (अनित्य ) भावना--
श्राध्यात्मरसिक युगाचार्य कुन्दकुन्द स्वामीने स्पष्ट कहा कि हे मन ? जिन माता, पिता, सम्बन्धी, अात्मीयजन, सेवक, आदिको तूं अपना समझ कर मोहरूप परिग्रह बढ़ाता है तथा जिन इन्द्र
१. 'कृत प्रमाणाल्लो भेन धनादधिकसग्रहः ।
पन्चमाणुव्रतज्यानी करोति गृहमेधिनाम् ॥” (यशस्तिथक चम्पू उत्त० पृ. ३६७) २. योगशास्त्र, ३, ९५-९६ तथा टीका । ३. सागार धर्मामृत ४, ६४ तया टीका । ४. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय श्लो. १८७ । ५. श्रावकधर्मप्रकरणम् गा. ८८ तथा देवसूरिकी टीका । ६. सागार धर्मामृत पृ. १२५ ७. “जगत्काय स्वभावी वा सवेगवैराग्यार्थम्” (तत्त्वार्थसूत्र ७, १२) ८. “अनित्याशरण ससारकत्वान्यत्वाशुच्यास्रव संवर निर्जरा लोकबोधदुर्लभ धर्मस्वाख्याततत्त्वानु चिन्तन मनुप्रेक्षाः ।” (त. सु. ९, ७)
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