________________
जैनधर्म तथा सम्पत्ति
परिग्रहके कुपरिणाम्--
___प्रश्न उठता है कि अात्म शक्तिका पूरा उपयोग करके न्यायमार्गसे सम्पत्ति कमा कर अपनी तथा दूसरोंकी आवश्यकता पूर्ण करना धर्म ( कर्त्तव्य ) है । तथापि; यदि कोई उसका पालन न करे जैसा कि आज जैनी भी कर रहे हैं ? सूत्रकार कहते हैं “परिग्रह यहां तथा भवान्तर में भी अनिष्ट कारक है" "इस लोक में परिग्रही मांसके टुकड़ेको लिये उड़ने वाले पक्षीके समान है । उसपर दूसरे आक्रमण करते हैं । उसे कमाने तथा सुरक्षित रखने में कौन ऐसा अनर्थ है जो न होता हो ? ईधनसे अग्निके समान मनुष्य धनसे कभी तृप्त नहीं होता । लोभ में पड़कर उचित-अनुचितका ज्ञान खो बैठता है और अपना अगला जन्म भी विगाड़ता है।"
शंका होती है मरने पर क्या होता है ? ''बहुत प्रारम्भ तथा परिग्रह करनेसे प्राणीको नरकायु प्राप्त होती है। क्योंकि कर्त्तव्य-अकर्त्तव्यका ज्ञान न रहनेसे श्रमिकोंकी हिंसा, भागीदारोंको धोखा ( असत्य ) एक वस्तु में दूसरी मिलाना, बहुतसा छिपाकर बेचना ( चोरी ) श्रादि सब ही पाप शिष्ट सम्पत्तिशाली करता है। तथा यदि "थोड़ा (जीवनके यापनके लिए कार्यकारी) प्रारम्भ परिग्रह हो तो पुनः मनुष्य जन्म पायेगा ।' मानव समाजको सम्पत्तिमें कोई विशेष अनौचित्य नही दिखता किन्तु पांच पापों में परिग्रह ही केवल ऐसा पाप है जिसे मनुष्यके पतनके प्रति साक्षात कारणता है। जबकि शासन एवं समाजकी दृष्टि में गुरुतर समझे जाने वाले पापोंको परम्परया ही कारणता है । वस्तु स्थिति तो यह है कि 'परिग्रहसे इच्छा उत्पन्न होती है इच्छाके अतिरेक या विघातसे क्रोध, क्रोधसे हिंसा और हिंसासे समस्त पाप होते हैं" ।' यह एक मनो वैज्ञानिक तथ्य है कि हिंसाके ही लिए हिंसा, झूठके ही लिए झूठ, चोरीके ही लिए चोरी तथा असंयमके लिए ही असंयम तो 'न भूतो न भविष्यति' हैं। निष्कर्प
तात्पर्य यह कि सम्पत्ति समस्त अनर्थोंकी जड़ है । फलतः अपने असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि व्यवसायसे अर्जित सम्पत्तिमेंसे व्यक्ति उतनी ही अपने पास रखे जो उसकी जीवन यात्राके लिए अनिवार्य हो । उससे अधिक जो भी हो उसे उनके लिए दे दे जो अपनी आवश्यकता पूर्ति भरके लिए भी नहीं कमा पाते हैं । अर्थात् शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्यके लिए उपयोगी मात्र परिग्रह रखना प्रत्येक व्यक्तिका धर्म है । अर्थ तथा काम प्रधान इस युगमें यह प्रश्न किया जाता है कि जब
१. "इहामुत्रापायावद्य दर्शनम् ।" ( त० सू० ७, ९) २. सर्वार्थ सिद्धि पृ. २०३, राजवत्तिक पृ० २७२, स० त० भा० पृ० १५५, आदि । ३. तत्त्वार्थ सूत्र ६, १५ । ४. , ६, १७ । ५. ज्ञानार्णव १६, १२ ।
१८९