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वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ
सब देश अपने जीवन निर्वाहके स्तरको उठा रहे हैं तब श्रावश्यक वस्तुत्रोंके कार्यकारी परिमाणका उपदेश देशकी अवनतिका कारण हो सकता है । किन्तु यह संभावना दूसरी ओर ही है । उन्नत से उन्नत जीवन स्तर करनेकी भावनाका यह कुपरिणाम है कि आजका विश्व स्थायीरूपसे युद्ध के चंगुल में फंसा नजर आ रहा है । श्राकाश अनन्त है फलतः यदि उठने अथवा शिर उठानेकी प्रतियोगिताकी जाय तो उसकी समाप्ति संभव है । हां पृथ्वी सीमित है फलतः हमारे पैर एके धरातल पर रहें ( रहते ही हैं ) ऐसी व्यवस्था सम्भव है । जब तक मानव समाज अपने आप कमसे कम में संतुष्ट होनेके लिए मनसा, वाचा, कर्मणा प्रस्तुत न होगा तब तक अर्थिक गुत्थी उलझी ही रहे गी । तथा आर्थिक स्तर यदि किसी भूभागमें उठा भी तो आध्यात्मिक स्तम्भों पर खड़ा न होनेके कारण वह स्वयं धराशायी हो जायगा । यही कारण है कि साम्यवाद भी साम्राज्यवादके प्रत्येक अस्त्रसे काम ले रहा है तथा उसीके मार्ग पर बढ़ा चला जा रहा है। तटस्थ पर्यवेक्षक नाम-भेद के अतिरिक्त और कोई तात्विक अन्तर नहीं देखता है । पूंजीवादका अन्त पूंजीको एक स्थलसे दूसरे स्थल पर रखने से ही न होगा । अपितु पूंजी वीभत्स रूपका सक्रिय ज्ञान तथा पू ंजीमय मनोवृत्ति के विनाश से होगा जैसा कि विरक्त युवराज श्री शुभचन्द्राचार्य के
एनः किं न धनप्रसक्तमनसां नासादि हिंसादिना,
कस्तस्यार्जनरक्षण क्षयकृतै दाहि दुःखानलैः । तत्प्रागेव विचार्य वर्जय वरं व्यामूढ़ वित्तस्पृहा,
कास्पदतां न यास विषयैः पापस्य तापस्य च ।। तथा परिमित परिग्रह अर्थात् संयमवादका सार है ।
इस कथन से स्पष्ट
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