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जैनधर्म तथा सम्पत्ति प्रतिपादन भी दिये जा सकते हैं जो कि उनके देश, काल, यादि की सामाजिक परिस्थितिके विवेक तथा साहस पूर्ण हल होंगे
लक्षणों का फलितार्थ --
उक्त प्रधान लक्षणों की समीक्षा के आधार पर कहा जा सकता है कि सावधानी के साथ देश काल, आदिका विकल विचार करके इच्छा तथा मनोवृत्तिको पूर्ण नियन्त्रित करते हुए जो जविनोपयोगी वस्तुका कार्यकारी मात्र परिणाम किया जाता है वही परिग्रह परिमाण व्रत है ।
भ्रान्त प्रथा
प्रश्न उठता है कि जब इतना सूक्ष्म विवेचन मिलता है तो यथेच्छ परिमाण करके परिग्रह परिमाण व्रती बननेकी पद्धति कैसे व्यवहार में आयी । तथा हिन्दी टीकाकारों की क्षेत्रादि, हिरण्यादि धनादि, द्विपदादि कुप्यमानातिक्रमादि २ को स्थूल सी व्याख्या में भी वर्तमान प्रथाका सैद्धान्तिक समर्थन सा क्यों प्राप्त होता है ? परिमाण स्वरूप श्राज क्यों देखा जाता है कि अनावश्यक धन, धान्यादिके स्वामी हजारों दासी दासों के परिश्रमकी कमायी पर विलास करने वाले साधर्मी केवल संख्या निश्चित कर
के कारण परिमित परिग्रही कहे जाते हैं। संभवतः इस भ्रान्त मान्यता के मूल में सामाजिक-श्रार्थिक परिस्थितियां जितनी कारण हुई हैं उससे अधिक कारणता उस अज्ञानको है जो १३ व १४वीं शती बाद मौलिक विद्वानोंके न होनेके कारण जड़ जमाता गया । साथही साथ पड़ोसी धर्मोंका प्रभाव भी उदासीन कारण नहीं रहा है । इनके अतिरिक्त द्रव्य; वह भी दृष्ट हिंसा के पालक हो जाने के कारण जैन नागरिक अन्य व्यवसायोंसे हाथ खींचते गये और वाणिज्यके ही उपासक बन गये । फलस्वरूप 'दिन दूनी रात चौगुनी' सम्पत्ति के संचयको न्याय करनेके लिए उनका परिग्रह परिमाण व्रतके स्वरूपको तदनुकूल बनाना स्वाभाविक ही था । अर्थ प्रधान युग होनेके कारण धर्मोपदेशक पंडितोंने भी अपने कर्त्तव्योंका नैतिकतासे पालन नहीं किया, जिसका कि पं० श्राशावर 3 जी को स्पष्ट उल्लेख करना पड़ा था फलतः परिग्रह परिमाणको विकृत होना पड़ा। क्योंकि लक्षणों तथा उनकी व्याख्या परिमित परिग्रहके 'अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्यकारी परिमाण रूपका संकेत करती है । इतना नहीं इसके पालनकी भूमिका, इसमें आनेवाले दोषों, आदिका वर्णन भी इसका समर्थक है ।
१ रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी भाषा वचनिका, मोक्षमार्गप्रकाश, सुदृष्टि तर गिगी आदिके व्याख्यानोंके अंश । २ "असयारम्भविणिवित्ति संजणयं । खेत्ताइहरिण्यई धगाइ दुपयाई कुप्पमानकमे । "
श्रावकधर्म विधिप्रकरणम् गा० ८७-८ ।
३ "पण्डितेभ्रंष्ट चारित्रै • इत्यादि । "
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