________________
जैनधर्म तथा सम्पत्ति
धर्मशास्त्र क्यों पढ़। जाय उससे आर्थिक समस्याका हल तो होता नहीं। पर स्थिति ऐसी नहीं है । यदि मनुष्यके अन्तरंग शत्रु सहज-विश्वासकारिता, भ्रान्ति तथा अज्ञानके लिए सम्यक् दर्शन तथा ज्ञानका विशद प्रतिपादन है, युद्धादि हिंसात्रोंसे बचानेके लिए अहिंसा, असत्य व्यवहार तथा कूटनीति (डिप्लोमैसी) के लिए सत्य. व्यक्तिगत चोरी तथा राष्ट्रिय अन्ताराष्ट्रिय आर्थिक शोषणसे बचानेके लिए अचौर्य तथा स्त्रीको सम्मान और समानता जिनाकारीनिरोध एवं सुसन्तानके लिए ब्रह्मचर्यका उपदेश है तो पूंजीवादके मस्तकपर कच्चे तागेमें बंधी 'अपरिग्रह' रूपी तलवार भी लटक रही है। क्या देवपूजा, युक्ताहार-विहार,
आदि करनेसे ही मनुष्यके कर्तव्य पल जाते हैं ? जैन धर्मशास्त्र उत्तर देता है 'नहीं' । धार्मिक होनेके लिए पहली शर्त यही है कि धन न्यायपूर्वक कमाये । न्यायसे भी यदि अधिक कमाये तो क्या करे ? देवपूजा गुरुसेवा, अादिके समान ही ज्ञान, औषधि, अाहारादिकी व्यवस्थामें उनके लिए उस्सर्ग कर दे जो अभावग्रस्त हैं । क्या ऐसे व्यवसाय कर सकता है जिसमें हिंसा हो अर्थात् दूसरोंकी आजीविका जाती हो, दूसरोंको अपने श्रम तथा साधनाके फलसे वञ्चित होना पड़ता हो, आदि ? उत्तर मिलता है कदापि नहीं । ऐसा व्यक्ति अहिंसक भी नहीं हो सकता 'न्यायोपात्त धनः' तो बहुत बादमें आनेवाली योग्यता है । किन्तु इसपरसे यह अनुमान करना कि “जैन धर्ममें परम्परया सम्पत्ति व्यवस्थाके संकेत हैं' शीघ्र-कारिता हो गी । क्योंकि जैनधर्म स्पष्ट कहता है कि यदि हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचारसे बचना है तो परिग्रहसे बचो। इस व्रतका विबेचन तो स्पष्ट एवं सर्वाङ्गीण सम्पत्ति शास्त्र है।
आजके विकृत मानव जीवन के पांच द्वार हैं । उन पांचोंमें से एक, एकपर एक एक पाप करके ही मनुष्य प्रवेश पा सकता है । अाजके तथोक्त शिष्ट प्रथम चार द्वारोंसे प्रवेश करते हुए सकुचाते हैं । किन्तु पञ्चम द्वारपर पहुंचते ही सोचते हैं “परिग्रह कर लो इसमें हिंसादि पाप तो हैं नहीं" परिणाम वही हो रहा है जो उस पौराणिक व्यक्तिकी दशा हुई थी जिसने मांसभक्षण, मद्यपान तथा वेश्यागमनसे बचकर भी जुना खेलना स्वीकार कर लिया था और फिर उसके बाद पूर्व त्यक्त तीनों कुकर्म भी किये थे। इसी प्रकार परिग्रहका इच्छुक व्यक्ति सर्वप्रथम अ-स्वस्थ, अनुशासन हीन अर्थात् अब्रह्मचारी होता है, उसके लिए चोरी करता है, चोरीको छिपानेके लिए असत्य व्यवहार करता है और असत्यसे उत्पन्न अनर्थों को न्यायोचित सिद्ध करनेके लिए हिंसाकी शरण ली जाती है। अर्थात् पाप उत्पत्तिका क्रम व्रतक्रमका
१ "न्यायसम्पन्न विभवः ...गृहिधर्मायकल्पते ।' (योगशाल १, ४७-५६)
"न्यायोपात्तधनः. सागारधर्म चरेत् ।" (सागरधर्मा० १ ११) २ देवपूजा गुरूपास्ति...दानं चेति गृहस्थानो षट्कर्माणि दिने दिने ।" ३ सागारधर्मामृत ५, २१-२३ । ४ योगशास्त्र २, ११०-११ सागरधा०४,६३-६५ ।
२३