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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
पूर्ण व्लोम है क्योंकि अहिंसाकी पूर्णताके लिए ' सत्य आवश्यक होता है । सत्यके आते ही चोरी वञ्चना असंभव होती है, इसके कारण कामाचार रुक जाता है फलतः ब्रह्मचर्य पाता है और ब्रह्मचर्य के उदित होते ही उसकी मर्यादाको सुपुष्ट करनेके लिए सुतरां व्यक्ति अपरिग्रही हो जाता है । परिग्रहमें पाप कल्पना
किन्तु श्राश्चर्य तो यह है कि परिग्रहको अनर्थोंका निमित्त कहकर तथा संचयकी मुक्तकंठसे निन्दा करके भी किसी धर्मने परिग्रहको स्पष्ट रूपसे पापोंमें नहीं गिनाया। अधिकसे अधिक यही किया कि उसे यमोंमें अर्थात् विशेष व्रतोंमें गिना दिया है। किन्तु जैनधर्मने परिग्रहको उतना ही बड़ा तथा घातक पाप कहा है जितने बड़े तथा भीषण हिंसा, आदि हैं। इतना ही नहीं मुक्तिको भी उन्होंने परिग्रह हीनता पूर्वक म ना जैसा अादि-जैन ( दिगम्बर ) परम्परासे सुस्पष्ट है | हिंसादि ऐसे पाप हैं जिनकी पापरूपता जगतकी दृष्टिमें स्पष्ट है, कर्ता भी सकुचाता है क्योंकि शासन व्यवस्था भी इन्हें अपराध मानती है और दण्ड देती है। किन्तु सम्पत्ति या परिग्रह ऐसा पाप है जिसे विश्व पाप तो कहे कौन बुरा भी नहीं समझता। भौतिक-समाजवादी भी इसके व्यक्तिगत-सम्पत्ति होनेके विरुद्ध हैं राष्ट्रीकरण अथवा समाजी करण करके इसकी अमर्याद वृद्धिको वे अपना लक्ष्य मानते हैं । किन्तु जैनधर्मकी दृष्टिमें प्रत्येक अवस्थामें परिग्रह पाप है जैसा कि निम्न लक्षणोंसे स्पष्ट हैपरिग्रह-परिमाण के लक्षण
___ इस युगके प्राचीनतम आचार्य कुन्दकुन्दने ग्रहस्थ धर्मका वर्णन करते हुए केवल 'परिग्गहारंभ परिमाणं" कह कर अपने युग ( ई० पू० प्रथम शती) के सहज सात्त्विक समाजको केवल सुवर्ण, श्राभरण
आदि परिग्रह तथा सेवा, कृषि, वाणिज्य, आदि प्रारम्भोंको आवश्यकताके अनुकूल रखनेका आदेश दिया था । किन्तु वीरप्रभुके तथ। केवलियोंके बाद ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों लोग उनके उपदेशको भूलते गये । वह समय तथा मन्दकषायी (सरल) समाज भी न रहे जो 'साधारण संकेत को पाकर ही पापके बाप परिग्रह' से बच जाते फलतः मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी श्रावश्यक हुआ। इस श्रेणीके श्राचायों में सर्वप्रथम प्राचार्य उमास्वामि हैं जिनके तत्त्वार्थसूत्र अथवा मोक्षशास्त्रकी
१ 'सत्यादीनि तत्परिषालनार्थानि, सव्यस्य वृत्तिपरिक्षेपवत्" सर्वा० सि० पृ० २०० तथा राजवा० पृ० २६९ २ “अहिंसा सत्यमस्तेय ब्राचया-परिग्रहाः ।" योगसूत्र २,३० । ३ तत्वार्थ सूत्र ७,१ तथा समस्त टीकाएं । ४ दृष्टण्य प्रतिमाक्रम, षष्ठगुणस्थान, परीषहादि विवेचन । ५ चरित्र प्राभृत गा० २३ । ६. दशधर्म पूजाँमें शौच धर्मका भाग ।
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