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जैनधर्म में कालद्रव्य
व्यवहार काल
स्याद्वाद में व्यवहार काल तथा निश्चय कालमें क्या सम्बन्ध है ? व्यवहार कालको 'समय' शब्दसे कहा है जब कि निश्चय कालको 'काल' शब्दसे ही कहा है। वस्तुओंमें होने वाले परिणाम तथा क्रिया द्वारा ही समयका भान होता है। वह कालात्मक परश्व (दूर) तथा अपरत्व व्यवहारका मूल स्रोत है। निश्चय कालके द्वारा अपने परिणामका निश्चय कारनेके कारण समय परायत ( पराधीन) है। क्षण, घंटा, दिन, वर्ष, आदि उसके परिणाम हैं। एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जानेमें ऋणुको जो समय लगता है उसे ही समय ( कालका सबसे छोटा प्रमाण ) कहते हैं । इसी इकाईसे घंटा, दिन, वर्ष, आदि बनते है ।
जगतकी सुघटित घटनाओं के आधारपर होने वाले घंटा, दिन, आदि भेदोंके निश्चयके समान समयकी सताका निर्णायक निकाल है। व्यवहार कालको उपचारसे काल कहते हैं। ज्योतिषी देवोंकी गति तथा वस्तूपरिणमनके आधारपर समय मेदकी मान्यता जैन दर्शनको दृष्टिमें उतनी ही भ्रान्त है जितना इस प्रकारकी गति तथा क्रियाको उनकी सत्ताका कारण मानना है ।
काल द्रव्यका जैन विवेचन विध्यात्मक दृष्टिसे इसलिए महत्त्वका है कि वह कालको विश्व के पदार्थोंमें अन्तरंग और मूल तत्त्व मानता है । 'न्यूटनके प्रिन्सिपा' का निम्न उद्धरण जैन मान्यता की प्रतिध्वनि मात्र है- 'शुद्ध तथा स्वस्थ समय बाहिरी वस्तुयोंकी अपेक्षा न करके अपने सहज स्वभावानुसार सम गति से चलता है जिसका दूसरा नाम स्थायित्व ( वर्तना) है" परस्य परस्य आदि आपेक्षिक, बाह्य तथा साधारण (व्यवहार) समयरूप मान वाह्य तथा इन्द्रियजन्य है जिसका निर्णय परिणाम से होता है। यद्यपि यह ठीक तथा अप्रामाणिक भी होता है। इसका शुद्ध समय (निश्चय काल ) के स्थानपर व्यवहार होता है, जैसे घंटा, दिन, मास, वर्ष, आदि ।
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१ ओदन - पाक परिणामका उदाहरण है। सूर्यका भ्रमण गतिका दृष्टान्त है। विशेष रागवार्तिक पृ० २२७
प्रवचगसार कारिका २१-२३ ।
२ प्रवचनसार गाथा ४७ तथा टीका |
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