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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
वह अनिवार्य हिंसाको अहिंसा और श्रापद्धर्मको धर्म नहीं मानेगा।' अस्तु, इस प्रकार अहिंसा व्रतके और उसके साधक जनके दो, दो भेद हो जाते हैंअहिंसाके दो भेद--४
१ सर्व देश ( सकल--समग्र-महा ) अहिंसा ।
२ एकदेश (विकल-असमग्र--अणु) अहिंसा । अहिंसा साधक जन के दो भेद--
१ सर्वदेश अहिंसा साधक ( वनस्थ साधु )
२ एकदेश अहिंसासाधक ( गृहस्थ-उपासक) अहिंसाके दो भेद यों हैं
१ निर्ग्रन्थता, तीनगुप्ति, पंच समिति, दसधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय, पंच चरित्र, बारह तप, ये सर्वदेश अहिंसाके निवृत्यात्मक अंश (अंग) हैं।
२ यथाशक्ति औषधि, अाहार, ज्ञान और अभयदान द्वारा दूसरोंके प्राकृतिक या परजन कृत दुःख कष्ट दूर करना गुणपूजा, तथा धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्गका अविरोध रूपसे सेवन करना, ये एक देश अहिंसाके प्रवृत्यात्मक अंश ( अंग ) हैं । अहिंसा साधक जनके दो भेद यों है--
___ सर्व देश अहिंसा साधक 'वनस्थ" किसीको दुःख नहीं पहुंचाता है क्योंकि इनके अन्दर प्रशस्त राग द्वेपका अल्पांश रह गया है । इनके लिए शत्रु मित्र समान है। क्योंकि ये लौकिक जिम्मेदारी से रहित हैं।
___एक देश अहिंसा साधक "गृहस्थ” किसीको सुख पहुंचानेका प्रयत्न करता है तो उसमें किसी को दुःख भी पहुंच जाता है, क्योंकि इनके अंदर प्रशस्त राग द्वेषका अधिकांश विद्यमान है। इनके लिए शत्रु मित्र समान नहीं है। क्योंकि ये लेकिक जिम्मेदारी सहित हैं । अहिंसाके उपदेशकोंका कर्तव्य--
विद्वान् उपदेशकोंका अथवा लोक नायकोंका कर्तव्य है कि मनुष्यकी ऊपर वर्णित शक्ति और परिस्थितिको ध्यानमें रखकर लोगोंको अहिंसा पालनका उपदेश दें । उपदेशकोंको यह उचित नहीं कि
१ 'शान हिंसाकी आशा नहीं देता, परन्तु प्रसंग विशेषपर हिंसा विशेषको अनिवार्थ समझकर उसकी छूट देता
है। जो मनुष्य शासकी दी हुई छूटसे लाभ नहीं उठाता है, वह धन्यवादका पात्र है। अनिवार्य हिंसा, हिंसा न रहकर अहिंसा नहीं हो जाती । हिंसाको हिंसाके ही रूपमें जानना चाहिथे ।" (म० गांधी) २ पु० सि० २०९।२११ तथा पंचाध्यायी २, ७५२ । ३ "मिस्तत्ववेद रागास्तथैव हास्यादयश्च षडदोषाः । चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः । (पु० सि० ११६)
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