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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
जबतक अपनी आत्माका स्वरूप नहीं जाना गया है, तबतक इस अत्माको कर्मजन्य दुखका भार है ही, और जब यह अात्मा अपने शुद्ध स्वरूप; टंकोत्कीर्ण स्वर्ण समान ज्ञायक स्वभाव को जान लेता हैअपने शुद्ध स्वभावको प्राप्त हो जाता है, उसी समय अनन्त सुखको स्वयमेव प्राप्त हो जाता है ।
हमने अपने अात्मस्वरूपको नहीं जाना, इसीसे हम अाजतक भव समुद्र में गोते खाते रहे । आत्मानुशासनमें श्री गुणभद्राचार्य कहते हैं
मामन्यमन्यं मां मत्वा भ्रान्तो भवार्णवे।
नान्योहमहमेवाहमन्योऽन्योऽन्योऽहमस्ति न ॥ अर्थात्-भ्रान्तिके होनेसे जो आपको पररूप और परको श्राप रूप जाना इसीसे विपरीत ज्ञानके कारण तू भव-समुद्रमें भ्रमण करता रहा । अब तू यह जान कि मैं पर पदार्थ नहीं हूं। मैं जो हूं; सो मैं हो हूं और जो ये पर पदार्थ हैं; सो पर ही हैं। उनमें मैं नहीं हूं और वह मेरेमें नहीं हैं । श्रीमद्शुभचंद्राचार्य भी इसी तथ्यकी पुष्टि करते हुए ज्ञानार्णवमें कहते हैं
मिथ्यात्वप्रतिनद्धदुर्ण यथभ्रान्तेन बाह्यानलं भावान् स्वान् प्रतिपद्यजन्मगहने खिन्नं त्वया प्राक् चिरं संप्रत्यस्त समस्त विभ्रमभव चिद्र पमेकं परम्
स्वस्थं स्वं प्रविगाह्य सिद्धि वनिता वक्त्रं समालोकय ॥ अर्थात् हे अात्मन् ! तू इस संसार रूपी गहन वनमें मिथ्यात्वके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए सर्वथा एकान्त रूप दुर्जय मार्ग में भ्रमरूप होता हुआ, बाह्य पदार्थों को अपने मानकर व अंगीकार कर चिरकालसे सदैव खेद खिन्न हुअा । अब समस्त विभ्रमोंका भार दूर कर तू अपने अापहीमें रहने वाले उत्कृष्ट चैतन्य स्वरूपका अवगाहन करके उसमें मुक्तिरूपी स्त्रीके मुखका अवलोकन कर !
यद्यपि वह जीवनामका पदार्थ निश्चयनयसे स्वयं ही परमात्मा है, किन्तु अनादि कालसे कर्माच्छादित होनेके कारण यह अपने स्वरूपको नहीं पहिचान पाता है । श्राचार्य शुभचंद्रजी ज्ञानार्णव में कहते हैं
अनादि प्रभवः सोऽयमविद्याविषम ग्रहः।।
शरीरादीनि पश्यन्ति येन स्वमिति देहिनः ॥ अर्थात्--यह अनादि काल से उत्पन्न हुअा अविद्यारूपी विषम अाग्रह है जिसके द्वारा यह मूढ़ प्राणी शरीरादिकको अपना मानता है अर्थात् यह शरीर है, सो मैं ही हूं, यह देखता है ।
अयं त्रिजगतीभर्ता विश्वज्ञोऽनंत शक्तिमान् ।
नात्मानमपि जानाति स्वस्वरुपात्परिच्युतः। अर्थात् यह आत्म तीन जगतका स्वामी है, समस्त पदार्थोंका ज्ञाता है अनन्त शक्तिमान है, परन्तु अनादि कालसे अपने स्वरूपसे च्युत होकर अपने आपको नहीं जानता !