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जैन प्रतीक तथा मूर्तिपूजा साकार अथवा निराकार मूर्तिमें जो विधिपूर्वक उसके गुणोंका न्यास किया जाता है उसे ही प्रतिष्ठा' कहते हैं वह जिनदेवके गुणोंकी मूर्ति स्थापना-रूप है । धर्मका कारण होनेसे जिनदेव अथवा अन्य गुणी स्थापनीय होते हैं । इसमें या तो गुणीकी ही प्रधानता होती है गुण गौण रहते हैं अथवा गुणों ही की प्रतिष्ठा होती गुणीका उतना ध्यान नहीं रहता है। इस प्रकार पाषाणसे बनी घटित अथवा अघटित मूर्ति भी जिन, क्षेत्रपाल, बौद्ध, गणधर, विष्णु, गांधी, आदि नामको पाकर पूजी जाती है क्योंकि प्रतिष्ठा द्वारा वे वे देवता अथवा पुरुष उस मूर्तिमें समा जाते हैं ऐसी मान्यता है, क्योंकि अपनी दृढ अास्था द्वारा साधक उन्हें वहां देखता है। भवन वासी, व्यन्तर ज्योतिषी, वैमानिकादि देव अपनी अपनी अन्तःशक्तिको मूर्तियों में प्रवेश करा देते है ऐसी मान्यताका आधार भी यही है । सिद्धों तथा अर्हन्तोंकी मूर्तियों की स्थापनाका भी यही रहस्य है। इसी प्रकार तालाब कुंश्रा, आदिकी प्रतिष्ठाका भी उक्त तात्पर्य है, अर्थात् देवी देवताओंकी विभूतिकी ही स्थापना होती है अर्हन्त, इन्द्रादि स्वयं नहीं
आते हैं । मूर्ति पूजा सम्बन्धी यह जैन मान्यता 'मानव-देव' प्रक्रियाकी पूर्ण समर्थक है। क्योंकि जिनदेव स्वयमेव अनन्त गुणोंके पुञ्ज मुक्त 'मानव' हैं जो फिर कभी भी संसारमें अवतार नहीं लेंगे। वे वैदिक धर्मके अलौकिक शक्ति सम्पन्न सर्वथा देव स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु, शिव अादि 'देव-मानव' के समान नहीं हैं जो स्वयं मुक्त होकर भी अवतार लेते हैं । जैनमूर्ति कलाका विश्लेषण करते समय वैदिक तथा जैन मान्यताके महत्त्वपूर्ण भेद पर दृष्टि रखना आवश्यक है । मूर्ति पूजाका विकास
ईसकी प्रथम अथवा द्वितीय शतीका अन्त आते आते जैनलोग पूर्ण मनुष्य रूपकी मूर्तियोंकी पूजा करने लगे थे यह प्रमाण सिद्ध निष्कर्ष है। यद्यपि सम्राट खारवेलने अपने खंडगिरीके हस्तिगुफों शिलालेखमें अर्हत् मूर्तिका उल्लेख किया है, जिसे लोग अस्पष्ट सा मानते हैं । तथा संदिग्ध भावसे उसकी व्याख्या करते हैं । इन्हीं गुफाओंमें शिलाओंकों काटकर बनायी गयो कुछ मूर्तियां भी मिलती हैं । इन सबको छोड़कर यदि मथुराके कंकाली टीलेसे निकली पूर्ण मानवाकार सरस्वतीकी मूर्तिको ही लें। और उसपर पड़ी तिथिका विचार करें तो यह मूर्ति जैन मूर्तिकलाको कुषाण कालतक ले जाती है। १–साकार वा निराकारे विधिना यो विधीयते । न्यासस्तदिदमित्युक्त्वा प्रतिष्ठा स्थापना च सा ।।
स्थाप्यम् धर्मानुवन्धाङ्ग गुणी गौग गुणोऽथवा । गुणो गौणगुणी तत्र जिनाद्यन्यतमो गुणी ।।
(पडिताचार्य आशाधरकृत प्रतिसारोद्धार पृ० १.) २ "भुवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिकानां तत्तदधिष्ठानाद् प्रभावसिद्धिमूर्तिपु, गृहवापिकानां तथैव । सिद्धानां चाहदादीनां प्रतिविधी कृते तत्प्रतिमांयां प्रभावव्यातिर कः संघटने तत्र न तेषां मुक्तिपदवीनामतारः, किन्तु प्रतिष्ठा देवता प्रवेशादेव सम्य दृष्टिः सुराधिष्ठानाच्च प्रभावः ।" (आचार दिनकर पृ. १४१)
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