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जैन प्रतीक तथा मूर्तिपूजा
श्री प्रा० अशोककुमार भट्टाचार्य, एम० ए० बी० एल०, काव्यतीर्थ, आदि
जैन धर्म में पूजाके आदर्श व्यक्तिकी शारीरिक सदृशता मात्र पर दृष्टि रखकर पूज्यकी प्रतिमा कभी नहीं पुजती; जैसा कि बौद्ध तथा वैदिक धर्मो में भी होता है । न जाने कबसे मानवकी बुद्धिने महत्तम देवताकी कल्पनाका आधार उसके शरीरकी सदृशताको न मानकर प्रतीक चित्रणको ही आदर्श माना है । इन बिम्बात्मक प्रत्युपस्थापनाओं के कुछ ऐसे अर्थ तथा लक्ष्यार्थ होते हैं जो इन्हें सहज ही उन कलामय कृतियोंसे पृथक् सिद्ध कर देते हैं जो केवल शोभाके लिए निर्मित होती हैं । वे चक्षु साक्षात्कार की अपेक्षा मानसिक व्यापार (विवेक) को अधिक जगाते हैं । भारतीय धर्मोंका अभीष्ट प्रतीक-पूजा अथवा आध्यात्मिक कल्पना वह इतिवृत्त है जो धर्मों के इतिहास के समान ही प्राचीन है । देवता अथवा प्रकृतिकी विविध साकार निराकार वस्तुओं का मानवीकरण ( मनुष्य की देहयुक्त समझना ) अर्थात् रूपभेद सर्वथा अर्वाचीन प्रकार है। मथुराके कंकाली टीलेसे निकले अष्ट मांगलिक द्रव्योंके प्रतीक युक्त 'आयागपटों' से जैनधर्म सम्बन्धी उक्त मान्यता भली भांति सिद्ध हो जाती है । ये श्रायागपट उतने ही प्राचीन माने जाते हैं जितनी अब तक प्राप्त प्राचीनतम जैन मूर्ति है ।
बौद्ध साहित्य में स्वयं महात्मा बुद्धके कुछ ऐसे वक्तव्य भी मिलते हैं जो मानवाकार मूर्तियों के प्रति उनकी विशेष घृणा के सूचक हैं । तथा मूर्तिमान से सम्बद्ध प्रतीकात्मक चैत्यकी अनुमोदना भी उसी प्रकरणमें मिलती है । जब बुद्ध दृष्टिके सामने न थे तब ही उनके व्यवहारकी विधि की गयी है । सम्बद्ध प्रतीकों की स्थापना बौद्धकलाका वैशिष्टय है जिसकी ठीक समता जैन धर्ममें नहीं मिलती । हस्तलिखित जैन ग्रन्थों अथवा जैन उत्कीर्णन कला में पाये जाने वाले प्रतीकात्मक प्रत्युपस्थापनोंका विषय पूजनीय पवित्र वस्तुएं हैं । कहीं पर इनमें से एक एकका चित्रण है और कहीं पर सबका एक
१ श्री बी० ए० स्मिथकी "मथुरा के जैन स्तूप तथा अन्य प्राचीन वस्तुएं" चित्र
२ " कतिमुखो भंते चैतियानीति ? ते नि आनन्द ति । कतमानि भते तेनेति ? शारीरिकम्, पारिभोगिकम्, उद्देसिकम् इति । सक्काप्ण भते तुम्हेंसु, धरतेसु येव चैत्यन, कातुति ? आनन्द शारीरिकम् न सुक्ककाष्टातुम, न हि बुद्धानां परिभूतकालयेव होति -- आदि । महाबोधिवंश पृ० ५९ ।
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७ तथा ९