________________
प्रत्येक आत्मा परमात्मा है ख्वाजा हाफ़िज सा० फरमाते हैं
फाश मो गोयमो अज गुफ़्त-ए-खुद दिल शादम वंदा-ए-इश्कमो अज़ हरदो जहां आज़ादम । कोकवे-बख्त मरा हेच मुनजिम न शिनाख्त या रब ! अज मादरे-गेती बचे ताला जादम । तायरे-गुलशने-कुसुम चे विहम शहे-फ़िराक़
फि दरों दामे-गहे-हारसा चूँ उफ्तादम ॥ याने मैं खुल्लमखुल्ला कहता हूं और अपने इस कथनसे प्रसन्न हूं कि मैं इश्कका बंदा हूं और साथ ही लोक और परलोक दोनोंके बंधनोंसे मुक्त हूं। मेरी जन्मपत्रीके ग्रहोंका फल कोई भी ज्योतिषी न बता सका । हे ईश्वर ! सृष्टि-माताने मुझे कैसे ग्रहोंमें उत्पन्न किया है । स्वर्गके उद्यानका पक्षी हूं। मैं अपने वियोगका हाल क्या बताऊं कि मैं इस मृत्युलोकके जाल में कैसे या फंसा ?
जिस समय यह अात्मा रागद्वेषकी परिणतियोंको ढीली कर हृदय परसे मिथ्यात्वका प्रावरण हटाता हुअा अपने स्वस्वरूपमें स्थिर होने लगता है तो पर-परिणतियोंका किला ढहने लगता है और कर्म की कड़ियां क्रमशः टूटने लगती हैं।
स्वस्वरूपमें रमण करने से यह अात्मा कर्माका बंधन काटता हुअा क्रमशः अरहन्त पद पा जाता है और फिर समय पाकर स्वयं शुद्ध बुद्ध परमात्मा हो जाता है । आत्मा और परमात्मामें भेद
बस इतना फ़र्क है अात्मा और परमात्मामें ! अनादि कालसे कर्मोंसे आच्छादित तेज पुञ्जका नाम आत्मा है और निर्लेप, निष्कल, शुद्ध, अविनाशी, सुखरूप और निर्विकल्पका नाम परमात्मा है ! आईना एक है सिर्फ सफाईका फर्क और वह भी पर्यायार्थिक नयसे, निश्चय नयसे अगर पूछा जावे तो अात्मा और परमात्मामें कोई भेद ही नहीं है जो अात्मा है सो परमात्मा है और जो परमात्मा है सो श्रात्मा है । आत्मानुशासनमें भी गुणभद्राचार्य कहते हैं
श्राजातोऽनश्वरोऽमूतः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः ।
देह माया मलैर्मुक्तो गत्वोर्द्धमचलः प्रभुः। अर्थात् आत्मा अजर अमर अमूर्तीक है व्यवहार नयकी अपेक्षा कर्मोंका और निश्चयनयकी अपेक्षा अपने स्वभावका कर्ता है । व्यवहार नयसे अपने सुख दुखका व निश्चय नयसे अपने स्वभावका भोक्ता है । अज्ञानसे इन्द्रिय जनित सुखोंका भोक्ता है । पर निश्चयसे परमानन्द मय ज्ञानस्वरूप है । व्यवहार नयसे देहमात्र है पर निश्चय नयसे यह चेतन है, कर्म फलसे रहित है । लोकके शिखर पर जाकर अचल तिष्टता है इसलिए प्रभु है ! 'तत्वसार' में श्री देवसेनाचार्य कहते हैं