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वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ साथ है । पूर्व उल्लिखित उद्धरणके आधार पर समझा जा सकता है कि गौतम बुद्ध मूर्तिपूजाके विरोधी थे फलतः बैद्ध धर्मके प्रारम्भिक युगमें मूर्तिरूपमें प्रत्युपस्थापन बहुत कम हुअ।। तथा उत्तरकालमें अत्यधिक हुआ । दिव्यावदानका' यह उल्लेख कि बौद्ध उपासक मूर्तिकी पूजा नहीं करता है किन्तु उन सिद्धान्तोंकी पूजा करता है जिन्हें प्रकट करनेके लिए मूर्ति बनी है; महत्त्वपूर्ण है। जैनपूजाका आदर्श--
वैदिकों तथा बौद्धोंके समान होते हुए भी मूर्तिपूजा विषयक जैन मान्यताकी अपनी विशेषताएं हैं । उनकी मान्यता है कि तर्थिकर, श्रादि शलाका पुरुषों अथवा जिनधर्म भक्त शासन देवतादिकी प्रतिकृति होने ही के कारण मूर्तियोंकी स्थापना नहीं की जाती है अपितु उनकी स्थापनाका प्रधान कारण वे अनन्त दर्शन, आदि विशुद्ध एवं अलौकिक गुण हैं जिनका ध्यान करणीय है तथा जो श्रात्यन्तिक प्रेय हैं। सारभूत इन गुणोंकी शोधके लिए ही श्रावश्यक है कि उनका कहों पर प्रदर्शन किया जाय, ताकि इन श्रादशौंका ध्यान करते समय भक्तोंके हृदयमें अनन्त दर्शन ज्ञान, वीर्य सुखमय गुणोंकी स्पष्ट छाया पड़े । मूर्तिपूजाका उद्देश्य, उनके द्वारा प्रत्युपस्थापित मूर्तिमानके अलौकिक गुणोंकी महत्ताको प्रचुर रूपसे बढ़ाना है। इसी सिद्धान्तको दृष्टिमें रखते हुए गंगा, आदि नदियों, तालाबोंके अधिष्ठातृ देवी-देवताओंका उद्देश्य भी समझमें श्रा जाता है । फलतः तर्थिकरकी मूर्तिको उन सब साधनाओं और गुणोंके पुञ्जके रूपमें ग्रहण करना चाहिये, जो कि किसी भी धर्म अथवा युग प्रवर्तकमें होना अनिवार्य हैं । फलतः श्राराधकके हृदयमें श्राराध्यकी श्रद्धा बढ़ती ही जाती है।
प्रतिष्ठा
प्रतिष्ठा वह संस्कार है जिसके द्वारा श्राराध्य पुरुष अथवा वस्तुकी महत्ता तथा प्रभावकताको मान्य किया जाता है । जब कोई साधु प्रधानताको प्राप्त होता है तो उसे प्राचार्य' पदपर प्रतिष्ठित किया जाता है। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, शिल्पी, आदि भी वेदाध्ययन, शासन, व्यवसाय, सेवा, कला, आदिमें प्रतिष्टित किये जाते हैं तथा सामाजिक नियमानुसार तिलक, माला, समर्पण, आदि, द्वारा इस विधिको मान्य किया जाता है। यह सर्व विदित है कि तिलक, माला अनुलेपन, आदि विधियोंकी स्वयं कोई महत्ता नहीं है। फलतः इनके कारण किसी व्यक्तिकी महत्ता नहीं बढ़ती, अपितु प्रधानताका कारण तो वह स्वीकृति या मान्यता होती है जिसकी घोषणा यह सब करके की जाती है। इसी प्रकार मूर्ति प्रतिष्ठा भी एक महान प्रतीक है फलतः उसकी दार्शनिक व्याख्या होती है। अर्थात्
१ दिव्यावदान अध्याय, १६ । २-आचार-दिनकर (वर्धमान सूरि ) पृ० १४१ ।।
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