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जैन प्रतीक तथा मूर्तिपूजा कोई दोष नहीं होना चाहिये । बजाने पर टंकारकी ध्वनि श्रनी चाहिये । यदि घरके चौत्यालय के लिए मूर्ति है तो वह एक वितस्ति ( १२ अंगुल ) से ऊंची नहीं होनी चाहिये । लेजाने योग्य मूर्तियोंको श्रासन पर मन्दिर में रक्खा जा सकता है घरू चैत्यालय में नहीं । पूजनीय मूर्तिमें कोई भी दोष नहीं होना चाहिये, अन्यथा वह अशुभ हो जाती है । कोई भी अंग खण्डित नहीं होना चाहिये विरूप भी नहीं होना चाहिये, जैनदेवोंके आकार में भ्रान्ति नहीं होना चाहिये । उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स अवश्य होना चाहिये । डाढ़ी, मूंछ, श्रादिके बालोंके चिन्ह नहीं होना चाहिये, उसके साथ अष्ट प्रातिहार्य भी होना चाहिये । विशेष चमत्कारकी बात तो यह है कि मूर्तिकी भावभंगी पर पूरा ध्यान दिया गया है, यथा-मूर्तिको नेत्रहीन नहीं होना चाहिये अपितु वे न तो अधिक खुली होनी चाहिये और न कम खुली ही, ऊपरकी और भी दृष्टि नहीं होनी चाहिये, न कटाक्ष ही होने चाहिये और न सर्वथा नीचे की ही ओर होनी चाहिये ' अपितु 'नासा - दृष्टि' ( नाकपर दृष्टि ) होनी चाहिये, ताकि उससे स्थिरता और विरक्तिका भान हो ।
१ 'सद्वर्णात्यन्त तेजस्का बिन्दुरे खाद्यदूषिता । सशब्दा सस्वरा चार्हद् बिम्बाय प्रवरा - शिला ||"
२ वसुनन्दिकृत प्रतिष्ठासारसंग्रह, अध्याय ४ |
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( प्रतिष्ठा सारोद्धार पृ० ६ )