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जैनधर्ममें कालद्रव्य श्री प्रा० य. ज. पद्मराजैय्या, एम. ए.
जैनधर्म अनेकात्मक यथार्थ-वाद है । इसके अनुसार एक द्रव्य चेतन तथा पांच द्रव्य जड़ हैं। इसमें प्रतिपादित काल द्रव्यकी 'सत्' स्वरूपता न्याय वैशेषिकके समान होते हुए भी उससे विशिष्ट है।
काल द्रव्य दो प्रकारका है १ निश्चयकाल तथा २–व्यवहार काल । निश्चयकाल लोकाकाशके प्रदेशोंमें व्याप्त काल परमाणु स्वरूप है । कालाणु परस्परमें सम्बद्ध नहीं हैं। अतः वह अस्तिकाय नहीं है । वे कालाणु एक, रत्नोंकी मालाके समान हैं। वर्गसन' के अनुसार समयके स्थानान्तरणसे उत्पन्न परिवर्तन तथा एलेक्जेण्डरके मतसे क्षेत्र-समयके संयोगसे उत्पन्न परिणाम क्षेत्रके समान; जैनदृष्टि से वर्तना निश्चय-कालद्रव्यका असाधारण लक्षण है। कालकी साक्षात् दृष्ट भिन्नता अर्थात् पृथक् पृथक् काल तथा एक काल-धाराके भेदका कारण वस्तुओंकी द्रव्य तथा पर्यायरूप अवस्थाएं ही हैं। काल द्रव्योंके परिवर्तनमें निमित्त कारण मात्र है।
वस्तुअोंके 'परिणाम' तथा क्रियाके द्वारा ही व्यवहार कालका ज्ञान होता है। यथा संसारमें होनेवाला प्राचीन, नवीन ग्रादि व्यवहार। जितने समयमें पुद्गलका एक परमाणु एकसे दसरे काल प्रदेशमें पहुंचता है उतना कालका सूक्ष्मतम परिमाण ही है । घंटा, दिन, मुहूर्त, श्रादि समयके परिमाण व्यवहार
कृत हैं। काल द्रव्य विषयक जैन मान्यताका असाधारण लक्षण यही है कि उसे जगतके पदार्थोंमें सारभूत • पदार्थ माना है।
पदार्थ व्यवस्था--
यतः जैनधर्म द्वैतात्मक' (अनेकान्तात्मक ) यथार्थवाद है फलतः उसकी दृष्टिमें भौतिक विश्वके निर्माता पांच अजीव द्रव्य...-१-पुद्गल, २-धर्म, (गतिका निरपेक्ष निमित्त) ३-अधर्म ( स्थिति का निरपेक्ष निमित्त), ४-श्राकाश (अवकाश दाता) तथा ५-काल हैं। जीव सचेतन द्रव्य है जिसे मिलाने पर सब द्रव्य छह होते हैं । ये ही इस विश्वके निर्माता, आदि हैं।
१. अनन्त जीव माननेके कारण भी यह अनेकात्मक द्वैत स्वरूप है । ब्रह्माद्वैत, आदिके समान नहीं ।
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