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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
खण्डगिरिकी तो कहना ही क्या है । वहां पर शिलाओं पर ही दिगम्बर जिनोंकी बड़ी मूर्तियां बनी हैं जिनके दोनों पाश्वों में पद्मासन चतुर्मुख जिन मूर्तियां हैं । यह मूर्तियां दो युगोंकी मूर्तिकलाके दृष्टान्त हैं । प्रथम युगकी मूर्तियां समान हैं उनमें कोई विशेष चिन्ह नहीं है किन्तु दूसरे युगकी मूर्तियोंके आसनों पर तीर्थंकरों के चिन्ह बने हैं । मूर्ति-शास्त्र जिनमें केवल मूर्ति निर्माणका सर्वाङ्ग वर्णन है वे तथा प्रतिष्ठा ग्रन्थ, जो प्रकरण वश ही मूर्ति निर्माण पर प्रकाश डालते हैं ईसाकी नवमी तथा दसवीं शतीके बाद प्रचुर संख्या में लिखे गये हैं । इस परसे हम यही निष्कर्ष निकालते हैं कि प्रारम्भिक युगमें सामान्य रूपसे मूर्ति पूजा का आदर्श जैनोंको मान्य था तथा शासन देवतादि की विस्तृत मूर्ति पूजा पर उस समय उतना अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था । संभव है कि स्वाभाविक तथा आदर्श जैनमूर्ति पूजा पर तांन्त्रिक प्रभावके कारण ही उत्तर कालमें दसवीं शतीके लगभग शासन देवतादिकी पूजा-प्रतिष्ठा प्रारम्भ हो गयी हो ।
इतना निश्चित है कि ईसाकी चौदहवीं शतीके लगभग जैनमूर्ति कलाका पूर्ण विकास हो चुका था। मूर्तियोंके आकार प्रकारकी समस्त बातें व्यवस्थित हो चुकी थीं। तथा इस समयकी मूर्तियां शासन देवता, आदिकी छोटी छोटी मूर्तियोंसे घिरी रहती थीं। मूर्ति निर्माण तथा उनकी विशेषता विषयक शास्त्रीय नियमोंको लिखनेकी पद्धति बहुत पहिलेसे चली आयी है। श्रीठक्कर फेरू कृत 'वत्थुसार पयरणम्' (वि सं० १३७२ १,३१५ ई०) के अनुसार विम्बके ऊपर तीन छत्र होना चाहिये । वे इतने गहरे तथा गोल होना चाहिये कि नासिकाको ढंक सके । मूर्तिके दोनों ओर यक्ष तथा यक्षिणी होना चाहिये तथा श्रासन पर नवग्रहोंके आकार खुदे रहना चाहिये। मूर्तिकी ऊंचाईका प्रमाण अंगुलों में होना चाहिये जो ग्यारहसे अधिक न हो। यदि मूर्ति पाषाणसे बनी हो तो वह सर्वथा निर्दोष (धब्बा, लकीर, आदि रहित ) एक पाषाण खण्डकी होनी चाहिये । पूर्वोल्लिखित 'श्राकार दिनकर' जिसकी रचना १५ वीं शतीमें हुई थी, भी उक्त व्यवस्थाअोंका पोषक है । उसमें लिखा है कि घरके चैत्यालयमें विराजमान मूर्ति (गृह-बिम्ब) की ऊंचाई ग्यारह अंगुलसे अधिक नहीं ही होना चाहिये । मूर्तिके लिए लाये गये पाषाण या लकड़ीकी परीक्षाके विषयमें 'विवेक-विलास, में पूरी प्रक्रिया मिलती है। उसमें लिखा है पिसे चावलोंका उबला लेप नरियलकी गिरीके साथ मिलाकर मूर्तिको लगानेसे ही उसपरकी लकीर आदि प्रकट हो जाती है । उदाहरण के लिए; यदि मूर्तिपर मधु, भस्म, गुड़, आकाश, कपोत, अत्यन्त लाल, गुलाबी, पीला, नारंगी, तथा कई रंगोंकी लकीरें हों तो समझना चाहिये कि पत्थरमें खद्योत (जुगुनू ) वालूकण, लालमेंढक, पानी, छिपकली, मेंढक, गिरगिट, नक्र, चूहा, सांप तथा बिच्छू अवश्य होंगे फलतः ऐसा पाषाण त्याज्य है। पंडिताचार्य आशाधरजो के प्रतिष्ठा सारोद्धारसे ज्ञात होता है कि दिगम्बर परम्परा भी इस दिशामें पूर्ण जागरूक थी । उसमें लिखा है कि सुन्दर रंगका दैदीप्यमान पाषाण ही मूर्ति बनाने योग्य होता है उसमें धब्बे, लकीरें, आदि
१ विवेक विलासका उद्धरण वत्थुसार, पयरणम् पृ० ८३ । २ एका दशांगुल बिम्ब सर्वकामार्थकारकम । एतत्प्रमाणंख्यातं ततो ऊर्जन कारयेत् || आचार दिनकर पृ० १४३ ।
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