________________
वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
की जाती है । बची हुई हड्डी, राख, आदि जिसे फूल कहते हैं गंगा, नर्मदा, आदि पवित्र नदियोंमें सिरा दी जाती हैं और प्रयाग, काशी, गया, आदि तीर्थों में पिण्डशुद्धि एवं श्राद्ध, तर्पण आदि क्रियाएं की जातीं हैं । इन तमाम क्रिया से उस मृत जीवका कल्याण हो या न हो पर करने वालोंकी सद्भावना स्पष्ट है। सल्लेखना—
स्वयं जैनधर्म जीवके शरीर त्यागनेके पूर्व ही उसकी आत्माको सुधारनेका विशेष विधान करता है । जिसे सल्लेखना या समाधिमरण नाम दिया गया है । यद्यपि वैदिक, मुसलमान, ईसाई, आदि धर्मो में भी मरणके संस्कार किये जाते हैं तथापि समाधिमरणमें अपनी एक महान् विशेषता है । अन्तिमक्रियाएं प्राण निकल जाने पर होनेके कारण वैसी ही हैं जैसे सर्प के निकल जाने पर लकीरका पीटना । जैनधर्ममें मरणासन्न जीवके मनोगत विचारोंको सुधारनेका प्रयत्न किया जाता है। उससे उपकारक वस्तुसे राग अनुपकारक वस्तुसे द्वेष स्त्री पुत्र, श्रादिसे ममताका संबंध और बाह्याभ्यंतर परिग्रहको छुड़ाकर शुद्ध मन एवं मीठे वचनोंसे कुटुम्बी नौकरों चाकरोंसे दोषोंकी क्षमा याचना करायी जाती है और दूसरोंके द्वारा भी उसे क्षमा करवाया जाता है । क्रम क्रमसे भोजन, श्रादि छुड़वाया जाता है । जीने मरनेकी इच्छा अथवा उससे भय करना मित्रोंकी याद और भोगोंकी इच्छाका त्याग कराया जाता है । ऐसी सल्लेखना धारण करनेसे जीव धर्मरूपी अमृतका पान कर समस्त प्रकारके दुःखोंसे रहित हो अनंत दुष्कर और अक्षय उत्कर्षशाली अवस्थाको प्राप्त होता है । उसे समझाया जाता है कि इस समय परिणामोंमें संक्लेशता हुई तो तुमको संसारके प्रचुर दुखोंको सहना पड़ेगा । कहा भी है'विराद्धे मरणे देव दुर्गतिर्दुरचोदिता
अनन्तश्चापि संसारः
पुनरप्यागमिष्यति ॥
हे देव १ समाधिमरणके बिगड़ जाने पर दूर पड़ी हुई दुर्गति प्राप्त होती है और अनन्त संसार पुनः धमकता है । इस तरह उसे वैराग्यभावना के द्वारा सज्ज्ञानी और बलवान् आत्मा वाला बनाया जाता है और इस तरह उसके अगले जन्म की सुधारणा की जाती है । इसीको पंडित-मरण अथवा समाधिमरण कहते हैं । इस तरह सद्मरणके द्वारा सुसंस्कृत सद्जन्मकी श्राशा संभव है लेकिन इसके लिए भी ने बताया है कि ऐसा समाधिमरण उसीको संभव है जिसका जीवन सद् अभ्यास सच्चरित्र, सद्विचार और सज्जनोत्तम गुणोंसे परिपूर्ण रहा हो। हम जैसा जागृत अवस्था में विचार और कल्पना किया करते हैं अचेत और सुप्तावस्था में वही क्रियाएं काम करती रहती हैं। मरण भी इसी तरह अचेत अवस्था है जबकि जाग्रत अवस्थाका अभ्यास कार्य करता है । जिस तरह उत्तम जन्म के लिए समाधिमरणकी आवश्यकता है उसी तरह सद् एवं शान्त मरण के लिये जीवन में सच्चरित्र और सद्विचार की श्रावश्यकता है इस तरह हमारी उत्तरोत्तर उन्नतिकी श्रृङ्खला बनती है अर्थात् श्रेष्ठ जीवनसे श्रेष्ठ मरण और श्रेष्ठ मरण से श्रेष्ठतर जन्म और उससे श्रेष्ठतम जीवन एवं योनिकी प्राप्ति होती है ।
१६२