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जीव और कर्मका विश्लेषण
श्री पं० बाबूलाल गुलजारी लाल
अनन्त द्रव्योंके समुदाय स्वरूप यह लोक है इसमें पाये जाने वाले ये सम्पूर्ण द्रव्य अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहें गे। प्रत्येक द्रव्यकी रचना श्रनन्त अनन्त गुणों के सम्मिलन से हुई है । द्रव्यमें पाये जाने वाले सम्पूर्ण गुण और उनका पारस्परिक मिलाप अनादि है और अविनाशी है अतएव समुदाय स्वरूपी द्रव्य भी अविनाशी हैं । प्रत्येक गुण अपने स्वभावसे च्युत न होनेके कारण, अविनाशी होते हुए भी निरन्तर अपने स्वरूपमें परिवर्तन करता रहता है। इस परिवर्तन के कारण वह अनन्त अवस्थाको प्राप्त होता है इन अवस्थाओं का नाम पर्याय है । गुण और पर्याय के समुदाय से बना हुआ प्रत्येक द्रव्य गुणकी अपेक्षा नित्य ( ध्रौव्य ) है और पर्याय की अपेक्षा नित्य श्रर्थात् उत्पाद व्यय स्वरूप है । द्रव्यकी रचना स्वतः सिद्ध है अतएव यह लोक न तो किसी कर्त्ता के द्वारा रचा गया है और न किसी के द्वारा नष्ट किया जा सकता है।
द्रव्य --
लोकमें पाये जाने वाले सम्पूर्ण द्रव्य जीव और जीवके भेदसे दो प्रकार के हैं । जिन द्रव्यों में चेतना (ज्ञान, दर्शन ) गुण विद्यमान है वे जीव कहलाते हैं और जिनमें यह गुण नहीं हैं वे जीव कहलाते हैं । अजीव द्रव्यके पांच भेद हैं १ -पुद्गल २-धर्म ३ अधर्म ४-काल तथा ५ श्राकाश इन पांचों द्रव्योंमेंसे पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुणयुक्त होनेसे मूर्तिक कहलाता है और शेष द्रव्य तथा जीव द्रव्य इन गुणों से रहित होनेसे अमूर्तिक कहे जाते हैं यद्यपि वे सब आकार वाले हैं । पुद्गल द्रव्य परमाणु रूप है उनकी संख्या अनन्तनान्त हैं । ये परमाणु अपने में विद्यमान रुखाई - चिकनाई इन दो गुणों के सहारे आपस में मिलकर स्कन्ध रूप (पिंड) हो जाते हैं और बिखरकर छोटे छोटे पिंड या परमाणु हो जाते हैं । परमाणु पुद्गलकी शुद्ध अवस्था है और स्कन्ध शुद्ध अवस्था | क्योंकि परमाणु अवस्था में वह स्वाधीन होता है और स्कन्ध अवस्था में मिलने वाले परमाणुत्रों में एक दूसरेसे प्रभावित होते हैं । इससे परमाणु अवस्था स्वाभाविक और स्कन्ध अवस्था वैभाविक कही जाती है ।
वैभाविकी शक्ति-
जैन सिद्धान्त में जीव और पुद्गल द्रव्यमें एक वैभाविकी नामकी शक्ति मानी गयी है । इस शक्तिको स्व और परका निमित्त मिलने पर जीव और पुद्गल द्रव्य विभाव रूप परिणमन करते हैं जैसे
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