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जीव और कर्मका विश्लेषण
पुद्गलकी वैभाविक अवस्था उसका स्कन्ध रूप है वैसे ही जीवकी वैभाविक अवस्था उसका संसारी होना है, संसार अवस्थामें जीवके मन, वचन और काय योग तथा कषाय भावोंका निमित्त पाकर पुद्गल परगाणु स्कन्ध रूप होकर जीवके साथ सम्बद्ध हो जाते हैं, जिसका प्रभाव जीवके ज्ञानादि गुणोंपर पड़ता है । इस तरहसे जीवके साथ सम्बद्ध इन पुदगल स्कन्धोंको ही द्रव्य कर्म कहते हैं । इन द्रव्य कर्मोंकी शक्ति की हीनाधिकता जीवके कषाय भावों पर अवलम्बित है। यदि जीवकी कषाय तीव्र होती है तो बंधनेवाले कमौकी स्थिति और फलदान शक्ति भी अधिक होती है, और यदि कषाय मन्द होती है तो कर्मोंकी स्थिति और फलदान शक्ति भी मन्द होती है । इन कर्म स्कन्धोंका जीवके साथ एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध होता है, उसे ही बन्ध कहते हैं। कर्म सन्तति--
जीवमें अनन्त गुण हैं उन गुणोंमें कर्मपुद्गलोंके बन्धके निमित्तसे विकार उत्पन्न होता है। जैसे जीव अपने ज्ञान गुणके द्वारा प्रत्येक वस्तुको स्वतः जानता है कि प्रत्येक द्रव्य भिन्न भिन्न है और परिणत हुए पुदगल स्कन्धके प्रभावसे यह पर द्रव्यको अपना मानने लगता है तथा उनके प्रति राग या द्वेष करने लगता है इस प्रकार इसके श्रद्धान गुणोंमें परको निज मानने रूप और चरित्र गुणोंमें पर द्रव्य के प्रति राग द्वेष करने रूप विकार उत्पन्न होता है जिससे यह पर द्रव्योंसे चिपटता फिरता है इस तरह पुद्गल-कर्मोंके निमित्त से जीवके भाव विकृत होते हैं, विकृत भावोंके निमित्तसे पुद्गल द्रव्य, कर्मत्वको प्राप्त होता है । अनादि कालसे यही अवस्था तब तक चलती रहती है जब तक इसका मोह दूर नहीं होता । कभी किसी सुयोगके मिलनेसे यह सचेत होता है और अपने स्वरूपको जान कर उसपर श्रद्धा लाता है तथा अपने ही स्वरूपमें लीन होता है तब कर्मकी पराधीनतासे छुट्टी पाकर अनंत सुखको प्राप्त होता है । अतः इसे दुखोंसे छुड़ाने वाला सिवाय इसके शुद्ध परिणामोंके और दूसरा कोई नहीं है । हां, यह बात अवश्य है कि अपने शुद्ध स्वरूपका परिचय, शुद्ध स्वरूपको प्राप्त अरिहन्तों या निर्ग्रन्थ-गुरुत्रों द्वारा होता है उन्हींके द्वारा शुद्ध स्वरूपमें लीन होने की विधि, विदित हो सकती है और इसलिए निमित्त रूपसे श्री अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, श्रादि परमेष्टी इसे सुख प्राप्त कराने वाले कहे जाते हैं और दुखी बननेमें पुग्दलकर्मोंको निमित्त होनेसे दुख देने वाला माना जाता है। परन्तु वास्तवमें सुखी दुखी होनेमें जीवके अपने ही भाव उपादान कारण हैं।
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