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अहिंसाकी साधना अब प्रश्न होता है कि क्या अहिंसाकी साधना शक्य है या अशक्य ? क्योंकि संसारी जीवोंके द्वारा हिंसा तो अनिवार्य है, कहा है, "ऐसी कोई भी क्रिया नहीं जिसमें हिंसा न होती हो ।' “संसारमें वह कौन है जिसने पाप (हिंसा) न किया हो ? जिसने पाप न किया वह किस तरह जिया, यह तो बतायो १२
किन्तु ऐसा नहीं है कि संसारी जीवोंके द्वारा अहिंसाकी साधना एकदम असंभव है । यदि ऐसा होता तो संसारी जीवोंका मुक्त होना असंभव हो जाता तथा क्यों साधनाके बलपर गांधीजो उसी निष्कर्ष पर पहुंचते जिसे जैनाचार्योंने पुकार पुकार कर कहा था । तथा जैसा कि उनके निम्न कथनसे स्पष्ट है -
“अगर अहिंसा धर्म सच्चा धर्म है तो हर तरह व्यवहारमें उसका आचरण करना भूल नहीं बल्कि कर्तव्य है । व्यवहार और धर्मके बीच विरोध नहीं होना चाहिये । धर्मका विरोधी व्यवहार छोड़ देने योग्य है । सब समय सब जगह सम्पूर्ण अहिंसा संभव नहीं, यों कहकर अहिंसाको एक अोर रख देना हिंसा है, मोह है, अज्ञान है। सच्चा पुरुषार्थ इसमें है कि हमारा आचरण सदा अहिंसाके अनुसार हो । इस तरह आचरण करने वाला मनुष्य अंतमें परमपद (मोक्ष) प्राप्त करे गा। क्योंकि वह संपूर्णतया अहिंसाका प.लन करने योग्य बने गा । और यों तो देहधारीके लिए संपूर्ण अहिंसा बीजरूप ही रहे गी। देहधारणके मूलमें हिंसा है। इसी कारण देहधारीके पालने योग्य धर्मका सूचक शब्द निषेधवाचक "अ-हिंसा" के रूपमें प्रकट हुअा है।"
"बेशक किसी न किसी प्राणीकी किसी न किसी रूपमें हिंसा तो अनिवार्य है । जीव जीवों पर जीते हैं इसलिए और महज इसी लिए बड़े बड़े दृष्टानोंने उस स्थितिको मोक्ष कहा है जिसमें जीव शरीरसे मुक्त हो,--उस शरीरसे जिसका पालन-संवर्धन करनेके लिये हत्या या हिंसा अनिवार्य होती है । फिर भी मनुष्यके लिए इसी शरीरमें रहते हुए उस पदकी श्राशा करना असंभव भी नहीं, यदि बहु हिंसाकी मात्रा घटाकर कमसे कम कर दे । वह जितना ही जानबूझकर तथा बुद्धि पूर्वक अपने श्रापको ऐसी हिंसासे दूर रक्खे गा जिसमें अपने निर्वाहके लिए दूसरे प्राणियोंकी हत्या होती हो, उतना ही परमपद (मोक्ष) के नजदीक हो गा । सम्भव है मनुष्य जाति ऐसा जीवन पसंद न करेगी जिसमें कुछ भी आकर्षण (प्रवृत्ति ) न दिखायी दे, परन्तु इससे उक्त कथनको बाधा नहीं पहुंचती । वे लोग जो कि पूर्णतः ऐसा निस्वार्थ जीवन व्यतीत कर रहे हैं, और प्राणिमात्रके प्रति करुणामय व्यवहार करते हैं, हमें अात्माके परमपद (मोक्ष) का माहात्म्य समझनेमें सहायता करते हैं । वे मनुष्य जातिको ऊंचा उठाते हैं और उसके आदर्श पथको भालोकित करते हैं।"
१ "साक्रिया काऽपि नास्तीह यस्यां हिंसा न विद्यते” (यशस्तिलक चं० उत्तरार्ध पृ० ३३५) २ "नाकरदाह गुनाहदर जहां कीस्त बिगी । आं कसकिं गुनाह न कर्द चूजस्ति विगी ।।"
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