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अहिंसाकी साधना श्री दौलत राम 'मित्र'
__ जो जितने क्षेत्रमें स्थित प्राणियोंको सुख पहुंचा सके वह उतने क्षेत्रका शासक समझा जाता है, इस दृष्टि से विचार करने पर विश्वका शासक वह हो सकता है, जो विश्वमें स्थित प्राणिमात्रको सुख पहुंचा सके । सारांश यह है कि संसारी ( भौतिक जीवन बद्ध दुःखी ) प्राणियोंको सुख रूप चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम-तथा मोक्ष ) प्राप्त करना है । इनमें से धर्म, अर्थ तथा काम ये तीन पुरुषार्थ ( भौतिक जीवन संबंधी सुख ) तो सुराज्यकी शासन नीतिके द्वारा भी प्राप्त हो सकते हैं १ किंतु चौथा नहीं । अतएव अंतिम परम पुरुषार्थ मोक्ष ( सदाके लिए दःखमक्ति ) है, वह जिसकी शासन नीतिके द्वारा प्राप्त हो सके, विश्वका शासक वही हो सकता है ! वह कौन है ? वह है-वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता । इन तीन विशेषताओंका धारक जिनदेव और उनकी शासन-नीति-संस्कृति है अहिंसाकी साधना । जो कि प्राणिमात्रको वर्तमान जीवनमें पारस्परिक अभयदान देती हुई अंतमें मोक्ष प्राप्त करा देती है ।
____अंतिम जिनदेव श्री वर्द्धमान महावीरने अाजसे २५०० वर्ष पूर्व श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको राजगृही ( बिहार ) में भव्य जीवोंको इसी अहिंसाकी साधनाका उपदेश दिया था। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, ये सब अहिंसाकी साधनाके भेद हैं । ४ वृत, संयम, धर्म, निवृत्ति, चारित्र, ये सब अहिंसाकी साधनाके नामांतर हैं।" मोक्ष इच्छुकोंको अहिंसाका सम्यक् ज्ञान प्राप्त करके यथाशक्ति अहिंसाकी साधना करके मोक्षमार्ग पर लगना चाहिये।
१. "धर्मार्थ कामफलाय राज्याय नमः " (नीति वाक्यामृत १७ सोमदेवमूरि) २. "मोक्षमार्गस्य नेत्तारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातार विश्वतत्वानां वंदे तद्गुण लब्धये ॥" ( तत्वार्थसूत्र उमास्वामि )
३. “सस्कृतिका फल है किसी निर्दिष्ट मार्ग पर सरलतासे जा सकनेकी योन्यताका प्राप्त हो जाना । संस्कृति 'सु' और . 'कु' दोनों प्रकारकी हो सकती है । सु-संस्कृति सुमार्ग पर ले जाय गी और कु-संस्कृति कुमार्ग पर ले जाय गी।
संस्कार, हृदयकी तन्मयता-जीवन व्यवहार, ये सब संस्कृतिके रूप है।" (ले०) ४ आत्म परिणाम हिंसन, हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् ।
अनृत वचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥” (पु. सि. ४२) ५ पंचाध्यायी २, श्लो. ७५५-५८ । ७६४-६५ ।
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