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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
१६ वें सूत्र तक कर्मों के साथ परीषहोंके विभाजनमें दूसरे कर्मोंका सम्बन्ध रहने पर भी सहायक कर्मको विभाजनमें स्थान नहीं दिया गया । जिस कर्मका जो कार्य है, उसकी मुख्यता लेकर ही परीषहोंका विभाजन किया गया है । कोई भी परीषह केवल किसी एक कर्मका फल नहीं हो सकती। प्रत्येक परीषहके साथ असाता वेदनीयका उदय होना आवश्यक है। जब तक असाता वेदनीयका उदय न होगा तब तक परीषहके कारण भी उपस्थित न हों गे। इसके लिए अन्तराय भी अ-विनाभावी है। असाताका उदय होनेपर भी यदि मोहनीयका उदय न होगा तब तक दुख रूप अनुभव भी न होगा और दुख रूप अनुभवके न होनेपर उसके सहनेका प्रश्न ही नहीं उठ सकता । फिर परीषहकी कल्पना ही निरर्थक हो गी । अतः प्रत्येक परीषह के होनेपर इन कर्मोकी अपेक्षा आवश्यक है। इन कौका परीषहोंसे सम्बन्ध कहीं सहायक रूपसे और कहीं मुख्य रूपसे वर्णन किया जाता है । किसी कर्मकी मुख्यता लेकर उस कर्मसे इतनी परीषह होती है, ऐसा वर्णन किया गया है।
'चुदादयोऽदर्शनान्ताः प्रत्यक्षीकृता द्वाविंशतिरिति न न्यूना नाधिकाः क्षमादि दशलक्षणकस्य धर्मस्य विघ्न हेतवः–अन्तरायकारणभूताः । केचिद् रागादुदयमापादयन्ति केचिद्वेषादिति, अतः सर्व एवैते प्रादुष्यन्तः समापतिताः समन्तात् परिषोढव्याः भवन्तीति।" -तत्वार्था टीका पृ० २२९ ।
अर्थात् क्षुधा परीषहसे लगाकर प्रदर्शन परीषह तक न एक कम न एक ज्यादा पूरी बाईस परिषह क्षमादि दश लक्षण धर्मके विघ्नमें कारण हैं । अन्तरायके कारणभूत हैं। इन बाईस परीषहोंमें से कुछ तो रागके उदयसे होती हैं और कुछ द्वपके उदयसे होती हैं इसलिए ये सब बाईस परिषह जोकि चारों तरफसे अाती हैं, वे सब सहनीय हैं !
__ श्वेताम्बर श्राचार्यकी इस टीकासे ज्ञात होता है, कि वे पूरी बाईस परीषहांको क्षमादि दश लक्षणधर्ममें विघ्न कारक मानते हैं । साथ ही मोहनीयका उदय भी श्रावश्यक बताते हैं । इसलिए यह कभी संभव नहीं हो सकता कि केवल वेदनीयके उदयसे परीषह कार्यरूपमें परिणत हो सके । यहां पर “परिषोढव्या भवन्ति" इस पदसे और भी स्पष्ट हो जाता है, कि ये परिषह सहनीय होती हैं । पहिले यह लिख चुका हूं कि मोहनीयका उदय परीषहोंमें आवश्यक है, और सुख दुखका अनुभव मोहनीय कर्मसे होता है, इसलिए परीषहोंको सहनीय शब्दसे युक्त किया गया है। परीषहजय शब्द ही वेदनीयके साथ मोहनीयका द्योतक है ? श्वेताम्बर अाम्नायमें स्वोपज्ञ भाष्यकी मान्यता है ।
एते द्वाविंशति धर्मविघ्नहेतवो यथोक्त प्रयोजनाभि सन्धायरागद्वेषौ निहत्य परिषोढ़व्या भवन्ति ।" -खोपशभा य पृट २२९ ।
यहां पर “रागद्वेषौ निहत्य परिषोढव्या” इस पदसे स्पष्ट ज्ञात होता है, कि परीषह जय राग और द्वेषको विजय करनेसे होता है। परीषह जयकी यही प्रक्रिया है । इसी भाष्यकी टीकामें श्वेताम्बर
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