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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
होती है कि जब वेदनीय मोहनीयका सहचारी रहता है उस समय वह अपने कार्यमें व्यापार करता ६, और ज्ञानादि गुणकाघात करता है । मोहनीयके अभाव में वेदनीय अपने कार्यमें व्यापार नहीं करता इसीलिए वह ज्ञानादि गुणका व्यभिचारी है । इसका कारण यह भी है कि वेदनीय मोहनीयके कारण ही जीव विपाकी कहलाता 1
कर्मकाण्ड में उत्तर प्रकृतियोंको जीव- विपाकी बताया है उसमें वेदनीयकी सत्ता और असाता भी जीव विपाकी हैं। इन जीव विपाकी प्रकृतियोंके उदयसे इनका फल जीवमें पड़ता है। अतः जीवके चौदयिक भावों में साता साता को भी सम्मिलित किया गया है या नहीं ? यह विचारणीय हैं। उमास्वामीने
दयिक भावोंके भेद गिनाते हुए “गति कषाय लिंग मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयता सिद्व लेश्याश्चतुश्चतुरथ्ये कै कै कै - कषट् भेदा: " सूत्रका प्रतिपादन किया है। इस सूत्र में गिनाये हुए इकस भाव ही औौदयिक होते हैं । यह मान्यता श्वेताम्बरौंको भी मान्य है । इन इक्कीस औदयिक भावोंमें वेदनीयके साता साता रूप सुख दुःखको शामिल नहीं किया गया है। इसका कारण यही है कि सुख दुःख रूप परिणाम जब जीव विपाकी होते हैं तब मोहनीयके कारण कषाय रूप ही होते हैं। कषायके अभाव में वेदनीयका असर जीवमें नहीं पड़ता । इसीलिए वेदनीयको ज्ञान दर्शनादि गुणका श्रव्यभिचारी और मोहनीयको बाधक बताया है । इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि क्षुधादि परीषहों में वेदनीय और मोहनीय दोनोंका साहचर्य है । केवल वेदनीयसे परीषद नहीं हो सकती ।
वेदनीयका लक्षण --
“अक्खाणं अणुभवणं वेयणियं सुहसरुवयं सादं । दुखसरुव मसादं वं वेदयदीदि वेदणियं || "
गो० द० १४
श्वेताम्बर आचार्य भी इन्द्रियजन्य सुख दुःखको वेदनीयके कारण मानते हैं । वेदनीय जन्य सुख दुःखकी वेदनाका प्रभाव इन्द्रियों के द्वारा ही होता है | वेदनीय जन्य सुख दुःख वास्तव में इन्द्रियों का ही सुख दुःख कहा जाता है । इन्द्रिय सुखके नामसे ही इसका व्यवहार होता है । जिस इन्द्रियका भाव होगा उस इन्द्रियजन्य सुख दुःखका भी प्रभाव उसमें पाया जाना चाहिये। जहां किसी भी इन्द्रियअनिन्द्रियका व्यापार नहीं पाया जाता है, वहां उस सम्बन्धी सुख दुःख नहीं पाया जाता। वहां वेदनीयके प्रभावसे सुख दुःखका वेदन किसी भी तरह से संभव प्रतीत नहीं होता है। इसलिए जहां इन्द्रियोंके व्यापारका अस्तित्व है और मोहनीय कर्म विद्यमान है वहीं परीषहकी परिभाषा घट सकती है। जहां मोहनीयका सद्भाव नहीं है वहां परिषहका सद्भाव कल्पना मात्र है ।
यह भी संभव नहीं कि मोहनीय के अभाव में शुद्ध वेदनीयका कार्य साता साता रूप रह सके। यह मैं पहिले लिख चुका हूं कि वेदनीय जीव - विपाकी है और उसका फल जीवमें पड़ना चाहिये ।
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