________________
वेदनीय कर्म और परीषह संवरका कारण है । जबतक संक्लेश रूप परिणाम रहते हैं, तब तक परीषह है, और तभी तक आव होता है | संक्लेश रूप परिणामों पर विजय होनेसे संवर होता है । अतः क्षुधाजन्य बाधा वा संक्लेश परिणामको क्षुधा परीपद कहते हैं । क्षुधाका संबंध वेदनीयसे है, बाधा जो कि दुःख रूप है, उसका संबंध मोहनीयसे है | अतः वेदनीय और मोहनीय दोनों कमसे क्षुधा परीषद हो सकती है ।
daare और मोहनीयका संबंध
"घादिव वेदणोयं मोहस्स वलेन घाददे जीयं । ” – कर्मकाण्ड
अर्थात् — वेदनीयकर्म मोहनीयके बलसे घातिया कर्मोंकी तरह जीवों के गुणोंका घात करता है । क्षुधा की बाधा बाधा वेदनीयका काम नहीं हो सकता । उसे मोहनीयकी अपेक्षाकी श्रावश्यकता है । यदि दुःख र सुख रूप वेदन केवल वेदनीयका हो कार्य माना जाय तो वेदनोयको जीव विपाकी होने के कारण घातिया कर्म स्वीकार करना चाहिये । जीव विपाकी होनेसे वेदनीयका फल मोहनीयके प्रभावमें भी जीव अवश्य होगा और दुःखरूप वेदन जीवमें होनेसे जीवके गुणों का घात भी अवश्य होना चाहिये । दुःख रूप वेदन हो और गुणोंका घात न हो यह कैसे संभव हो सकता है | वेदनीयमें जीवके गुणों को धातकी या सुख दुःख वेदनको शक्ति मोहनीय कर्मके ही कारण है । मोहनीयके प्रभावमें वह शक्ति से रहित हो जाता है ।
'क्षपिताशेषघातिकर्मत्वान्निराक्तीकृतवेदनोयत्वात् । —चत्रल| टी.खं० १ पृ० १९१ |
I
धवला के इस प्रकरण से ज्ञात होता है कि वेदनीय कर्म स्वतंत्र सुख दुःख रूप वेदनकी शक्ति से रहित होता है । वेदनीय कर्म अपनी फलदायिनी शक्ति में सर्वथा स्वतंत्र नहीं है । जिन अघातिया कर्मोको फल देनेमें घातिया कर्मों की अपेक्षा रहती है, वे घातिया कर्मों के नष्ट हो जानेपर अपनी फल दायिनी शक्तिसे रहित हो जाते हैं । नामकर्म श्रघातिया कर्म है, नामकर्म के उदयसे इन्द्रियोंकी रचना होती है । इन्द्रियां अपने व्यापार में वीर्यान्तराय और ज्ञाना वरणके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखती हैं । जब तक वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणका क्षयोपशम नहीं होता तब तक इन्द्रियां कार्य नहीं कर सकतीं । ज्ञानावरण और अंतरायके क्षय हो जानेपर इन्द्रियोंका कोई व्यापार या फल नहीं होता है । उनका अस्तित्व नहीं के बराबर है । केवली अवस्था में इन्द्रियोंका कोई फल नही है । अतः मोहनीय कर्मके अभाव में वेदनीय कर्म शक्ति रहित हो जानेके कारण फलदायक नहीं होता । केवली अवत्थामें वेदनीयका अस्तित्व द्रव्येन्द्रियकी तरह नाम मात्र के लिए रह जाता है ।
राजवार्त्तिकमें कलंकदेवने वेदनीय और मोहनीय के क्रमका कारण बताते हुए वेदनीयको ज्ञान दर्शन गुणका व्यभिचारी बताया है। और मोहनीयको विरोधी बताया है । इसका कारण मैं पहिले लिख चुका हूं कि मोहनीयके बल से वेदनीय कर्म सुख दुःखकी वेदना करा सकता है । इससे यह बात
१४७