________________
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे । धर्माय तनुविमोचननमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥
1. जैन धर्म में हिंसा
( स्वामी समंतभद्र ) ।
अर्थात् — जब कोई उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और रोग ऐसी हालत में पहुंच जांय कि धर्मकी रक्षा करना मुश्किल हो तो धर्म के लिए शरीर छोड़ देना सल्लेखना या समाधि मरण है ।
समाधि ले लेने पर उपर्युक्त आपत्तियोंको दूर करनेकी फिर चेष्टा नहीं की जाती, उपचार वगैरह बन्द करके वह अंत में अनशन करते करते प्राणत्याग करता है । सम्भव है कि उपचार करनेसे कुछ दिन और जी जाता । परन्तु जिस कार्य के लिए जीवन है, जब वही नष्ट हो जाता है तब जीवनका मूल्य ही क्या रहता है ? यह याद रखना चाहिये कि आत्माका साध्य शांति और सुख है । सुखका साधन है धर्म और धर्मका साधन है जीवन, जब जीवन धर्मका बाधक बन गया है तब जीवनको छोड़कर धर्म की रक्षा करना ही उचित है। हर जगह साध्य और साधन में विरोध होने पर साधनको छोड़ कर साध्यकी रक्षा करना चाहिये । समाधिमरणमें इस नीतिका पालन किया जाता है। इसी बातको कलंकदेवने यो स्पष्ट किया है
"
यथा वणिजः विविधपण्यदानादानसंचयपरस्य गृहविनाशोऽनिष्टः तद्धिनाशकारणे चोपस्थिते यथाशक्ति परिहरति, दुष्परिहारे च पण्याविनाशो यथा भवति तथा यतते । एवं गृहस्थोऽपि व्रतशील पुण्यसंचयप्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य शरीरस्य न पातमभिवाञ्छति, तदुप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति; दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतति । कथमात्मवधो भवेत” ।
-- तच्चार्थराजवार्तिक ।
भावार्थ- कोई व्यापारी अपने घरका नाश नहीं चाहता । अगर घर में ग्राग लग जाती है। कठिन है तब वह घरकी शरीरका नाश नहीं चाहता । परन्तु जब देता है और धर्मकी रक्षा करता है ।
तो उसके बुझाने की चेष्टा करता है । परन्तु जब देखता है कि इसका बुझाना
पर्वाह न करके धनकी रक्षा करता है । इसी तरह कोई आदमी उसका नाश निश्चित हो जाता है तब वह उसे तो नष्ट होने इसलिए यह श्रात्मवध नहीं कहा जा सकता ।
इस पर कहा जा सकता है कि सर्वज्ञके विना यह कौन निश्चित कर सकता है कि यह मर ही जायगा, क्योंकि देखा गया है कि जिस रोगीकी अच्छे अच्छे चिकित्सकोंने आशा छोड़ दी वह भी जी गया है; इसलिए संशयास्पद मृत्युको सल्लेखना के द्वारा निश्चित मृत्यु बना देना श्रात्मवध ही है । दूसरी बात यह है कि चिकित्सा से कुछ समय अधिक जीवनकी श्राशा है, जब कि सल्लेखनासे वह पहिले ही मर जायगा । अतः यह भी श्रात्मवध कहलाया और सल्लेखना कराने वाले मनुष्य घातक कहलाये ।
१२७