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जैनधर्मकी अोर एक दृष्टि है कि पदार्थ मात्र एक दूसरेके उपकारके लिए हैं। यह बात अाधुनिक विज्ञानने भी सिद्ध की है। विज्ञान हमें बतला रहा है कि वनस्पति वर्ग और प्राणि वर्ग परस्पर उपकार्योपकारक भावको रखते हैं । निसर्गकी शुद्ध प्राण वायुको सेवन कर प्राणिगण उसको गंदी बनाकर बाहर फेकते हैं । इस गंदे वायुका नाम पाश्चात्य विज्ञानमें कार्बोनिक गैस है। इसीका सेवन वनस्पति करते हैं । उसमें विद्यमान नैत्रोजन नाम की वायु वनस्पति वृद्धि में नितान्त आवश्यक है । वनस्पतिमें यह धर्म निसर्ग सिद्ध है कि वे नैत्रोजनको पृथक्कर उसका सेवन करते हैं । और पृथक्-करणके द्वारा प्राण वायुको फिर रिहा कर देते हैं जो कि फिर प्राणिमात्रको सदाके लिए काममें आता है यह एक चक्र है जो निसर्गको घटनामें सदाके लिए अनुत्यूत है। पेड़ अपने फलोंका उपयोग अपने लिए नहीं करते हैं । बादल समुद्रके खारा जलको लेकर हजार गुना मीठा पानी जमीन पर बरसाते हैं । इस प्रकारकी निसर्ग रचनासे हम क्या शिक्षा ले सकते हैं ? स्वार्थ त्याग तथा परोपकार
एक चनिकके पास कुबेरकी संपत्ति है केवल इतने ही से क्या, वह सुखी होगा ? अपनेको कृतकृत्य मान सकेगा ? कदापि नहीं । उस धनको यदि वह अपने शरीरकी तथा मनकी इच्छाओंको तृप्त करनेके लिए काममें लावे और इस प्रकार काम पुरुषार्थका लाभ करनेकी कोशिश करे तो धनका कुछ उपयोग जरूर हुआ । अब ये मनकी इच्छाएं उसकी जिस प्रकारकी हों गी इसपर उसका सुख निर्भर होगा। उदात्त इच्छा वह मानी गयी है जिसका प्रत्येक निसर्ग हमारे सामने मौजूद है। 'परोपकाराय सतां विभूतयः' . सज्जनोंके अवतार परोपकारके लिए ही हैं । 'सन्ताः स्वयं परहिते विहिताभि योगाः' सज्जन स्वयं अपनेको दूसरेका हित करनेमें जोतते हैं । इत्यादि वचन उदात्त ध्येयकेद्योतक हैं। इस सांसारिक जीवनमें उदात्त प्रकारकी जीवन यापना प्राचीन कालसेही वह मानी गयी है जिसमें त्याग बुद्धि हो। इस प्रकारकी त्याग बुद्धिको रखनेवाले और निबाहने वाले त्यागी अर्थात् 'सन्त' पदसे संबोधित होते हैं। ऐसे महान् त्यागी पुरुष सभी धर्मोमें विद्यमान हैं चाहे वे पुनर्जन्म और परलोक माने या न माने । जैनधर्मका सार त्याग
इस त्यागमें जैनधर्मके सिद्धान्त और आदेश अग्रसर हैं । बल्कि जैनधर्म दृढ़ताके साथ इस गुण को संपादन करनेका आदेश साग्रह दे रहा है । इनके चोबीस तीर्थकरोंमें तीन हमें इतिहास द्वारा ज्ञात हैं
और त्यागके मूर्तिमान् प्रतीक हैं । त्यागकी उच्च श्रेणी उनके यहां वहां तक पहुंची कि उनको दिगम्बर रहनेका उपदेश दिया । शरीरको दंश करनेवाले मशक, आदि कृमियोंका भी निवारण हिंसाके भयसे निषिद्ध किया गया । इस प्रकार अपने शरीरको कष्ट देकर भी क्षुद्र प्राणियोंकी भी हिंसा टाल दी गयी तब कायिक हिंसा वा वाचिक और मानसिक हिंसाके विषयमें कहनेका कोई अवसर ही नहीं है। इस प्रवृत्तिके मूलमें जो रहस्य भरा हुआ है वह बहुत ही उच्च दर्जेका है । वह यह है कि इस नश्वर शरीरके द्वारा अनश्वर तत्त्वका लाभ