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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
करे जो सब प्राणिमात्र में विद्यमान है । 'कृमिकीटकों में रहनेवाला चैतन्य तथा चैतन्य एक है' यह भावना अन्यथा किस प्रकार दृढ़ हो सकती है ? यदि यह तो फिर मनुष्यको इच्छा देहमें सीमित होकर नहीं रह सकती है। उसकी वासनाएं जायगी और उस पुरुषको मोक्ष रूपी श्रेष्ठ पुरुषार्थं सुकर तथा सुलभ हो गा ।
जैन तप,
मनुष्य शरीरमें रहनेवाला
भावना दृढ़ हो जाय गी
बिल्कुल निर्मूल हो
उससे अधिक कोई महत्वकी चीज
कष्ट देंगे जब उनको पूरा विश्वास
जैनधर्मकी तीसरी उपादेय वस्तु 'तप' या 'तपस्या है। तप अर्थात् शरीरको तपाना अर्थात् कष्ट देना । शरीरको वृथा कोई कष्ट न देगा । देहकी उपेक्षा तभी होगी जब वैसा करने से प्राप्त होती हो । विद्यार्थी विद्यालाभके लिए शरीरको तभी होगा कि वैसा करनेसे वे अपना अगला जीवन सुखसे व्यतीत करने में समर्थ हों गे । स्वादिष्ठ पक्वान्न भक्षण करने की इच्छा रखनेवालोंको रसोई बनानेका शारीरिक कष्ट करना होगा। इस प्रकारके शरीर को दिये हुए कभी 'तपस्' शब्द से बोधित हो सकते हैं। खासकर विद्यार्जनके लिए किये हुए कष्ट या क्लेश तपके भीतर आते हैं । किन्तु तप या तपस्या इनसे भी अधिक महत्त्व के लाभोंकी ओर संकेत कर रहा है। लाभ वही प्रशस्त माना गया है जिसका फिर नाश नहीं होता वह है शाश्वतिक लाभ | शरीर के बाहरकी सभी चीजें चाहे वे कितनेही महत्त्वकी हों— जैसे राज्यपद अगाध सम्पत्ति, अप्रतिहत सामर्थ्य, आदि जिनका अन्तर्भाव पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा इन एषणात्रय में किया गया है । ये सब अशाश्वत हैं । सदा के लिए रहनेवाले नहीं हैं। शाश्वतिक पद एक है जिसको प्राप्त करने के बाद प्राप्तव्य ऐसी कोई चीज फिर नहीं प्रतीत होती । उसीको श्रात्यन्तिक सुख कहते हैं । अथवा जिसके प्राप्त करने से दुःखका पूर्ण अभाव हो जाता है । यही सभी धर्मों का चरम लक्ष्य है । और इसीकी प्राप्ति के लिए संसारके सारे धर्म प्रवृत्त हुए हैं। किसी धर्मसे इसकी प्राप्ति देरीसे होता हो और किसीके द्वारा शीघ्र । जब चरम लक्ष्य इस प्रकार एक है तो वहां पहुंचनेके मार्गोंके लिए झगड़ा मचाना यह शुद्ध भूल है। जितने शीघ्र इस भूलको सुधारें उतना ही धिक श्रेयस्कर है |
रत्नत्रय ही साध्यः -
इन्हीं तीन बातोंको जीवन यापनके प्रधान साधन मानकर जैनधर्म बतला रहा है कि इस शाधतिक सुख अथवा निश्रेयस्की प्राप्ति सम्यग्ज्ञान सभ्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र के अभ्यासके द्वारा कर ले । किस धर्म के लिए ये बातें उपादेय नहीं हैं । मानव समाज के धर्मका चरम लक्ष्य जब तक यह था तब तक मान
का मार्ग उन्नत रहा और साथ साथ सुख समृद्धि रही । जबसे मानव इस चरम लक्ष्यसे च्युत होकर मानव स्वभाव में रहनेवाले द्वेष, लोभ, मत्सर दिसे अभिभूत हुए और क्रोध मदादिकके सहायता से चरम लक्ष्य के
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