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जैनधर्मकी अोर एक दृष्टि श्री प्रा० सीताराम जयराम जोशी, एम० ए०, साहित्याचार्य
___एक समय था जब मानव समाजकी प्रगति धर्म मूलक थी । भारत पर बाहरी आक्रमण रूके अभी पूरी शती भी नहीं वीती है पर यहां धर्म या मजहबके नाम पर बड़े बड़े श्रापसी झगड़े हो चुके हैं और अभी भी उसीके नाम पर लोग एक दूसरेसे अपने दुर्भावको प्रकट करते आ रहे हैं । यह हुई मानव समाजकी भूलकी कथा । किन्तु इस संसार में धर्म किस लिए प्रवृत्त हुअा ? क्या उसने मनुष्यके कल्याण संपादनके बदले अनर्थ ही खड़े किये हैं ? अादि प्रश्न विचारणीय हैं । धर्मकी परिभाषा,--
धर्मकी यह सुन्दर व्याख्या सबके लिए माननीय है कि धर्म वह है जिसके द्वारा अभ्युदय और निःश्रेयसका लाभ होता है, अभ्युदयमें धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्गका समावेश है। निःश्रेयस यह मोक्षका अपर पर्याय है । अर्थ और काम यह इस लोकमें सर्वाङ्गीण उन्नति के मूल हैं; यदि वे दोनों धर्मके साथ बिल्कुल संबद्ध हों। यहां पर थोड़ा विचार करना होगा कि धर्मके भीतर अभ्युदय और अभ्युदयके अन्तर्गत धर्म यह कैसे संभव है ? इसका उत्तर विचारने पर यह होगा कि एकही 'धर्म' शब्द व्यापक तथा संकु. चित अर्थमें प्रयुक्त है । व्यापक शब्दका अर्थ है 'मनुष्यका चरम लक्ष्य, और संकुचित अर्थमें धर्म युक्तायुक्त विवेकसे संबद्ध है। मनुष्यका अन्तिम लक्ष्य चतुर्वर्ग पुरुषार्थ प्राप्ति है। उसमें लोकभेदसे इहलोक
और परलोक माने गये हैं। जीव इस संसारमें जब तक मनुष्य देहको धारणकर विचरण कर रहा है तब तक उसका जगत इह है । मरनेके बादका लोक पर है। इसलिए यहां पर हम जो विवेचना करेंगे वह पुनर्जन्म व परलोक को गृहीत मानकर हो गी । जैनधर्म कर्म मूलक परलोक तथा पुनर्जन्म मानने वालोंमें अग्रणी है इसलिए यहां पर जो लिख रहे हैं वह उसको मान्य है ही, अस्तु । सृष्टिचक्र--
इस संसारमें प्राणिमात्रके लिए अत्यन्त आवश्यक तथा नैसर्गिक दो पुरुषार्थ हैं जो सभीको अभीष्ट हैं और सभी उन दोनोंको हृदयसे चाहते हैं वे हैं 'अर्थ और काम' । मानव जगत्की पूरी कोशिश इन दोनोंके लिए है, थी और रहेगी । अर्थ और कामके विना जीवनका एक क्षणभी वीत नहीं सकता । तब इनका स्वरूप क्या होगा यह निर्धारणीय विषय है। इस सृष्टिमें या इस निसर्गमें यह नियम स्वभावसे ही अनुस्यूत
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