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जैनाचार तथा विश्व-समस्याएं
उस अार्थिक व्यवस्थाका अाधार तथा पोषक संयम ही हो गा जो विश्वभरके प्राणियोंकी क्षेम कुशलकी स्थापनाका कारण हो गा। ५-अपरिग्रह--
ब्रह्मचर्य से जात संयम पंचम अणुव्रतको अनिवार्य कर देता है। अनेक दृष्टियोंसे अपरिग्रह की व्यवस्था जैनधर्मकी अपनी देन है । भोगोपभोगोंके होनेपर भी श्रात्म नियमन, प्रलोभनोंका दार्शनिक त्याग, उथलेपन तथा विषयातिरेकसे औदासीन्य ही तो तर-तम रूपसे अपरिग्रहके लक्षण हैं। लक्षणकार
आचार्योंने यही कहा है कि मनुष्य अपनी वाह्य विभूतिमें अति श्रासक्त न हो, और प्रलोभनोंकी उपेक्षा करे । मनुष्य जीवनकी आवश्यकता पूर्तियोग्य सम्पत्ति तथा साधन सामग्री रखे वाह्य अर्जनमें आत्म विस्मृत न हो जाय । और पक्षपात, ईर्ष्या, लोभ, दम्भ, भय, घृणा तथा लघुताका त्याग करे। इस अणुव्रतका पालक व्यक्ति सम्पत्ति अथवा साम्राज्यके लिए घृणित एवं वासनामय प्रतियोगिता कदापि न करेगा; जो कि वर्तमान युगकी महा व्याधि है और अनेक महान आपत्तियोंकी जननी है । इस व्रतके कारण होनेवाली मनोवृत्ति वर्तमान युगके लिए अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसीके द्वारा निष्ठुर एवं सर्वग्रासी भौतिक वादका निरोध संभव है । विज्ञानने उत्पादन बढ़ाया है तथा इतस्ततः वस्तुओंकी अतिमात्रा भी कर दी है। अाजके उद्योगों तथा व्यापारोंने नगरोंकी सृष्टि की है जहां जीवनमें शीघ्रकारिता ही नहीं है कृत्रिमता भी पर्याप्त है । मनुष्य ऐसी जड़ शक्तियोंकी पाशमें पड़ गया है जिन्हें समझना उसे कठिन हो रहा है । अाजके व्यापक रोग अर्थात् मानसिक विकार एवं अांशिक या पूर्ण शिथिलता उसे दबाते ही जा रहे हैं । प्रशस्त जीवनके लिए संग्राम अति क्लिष्ट हो गया है और उसी त्यागके बलपर लड़ा जा सकता है जिसे पंचम अणुव्रत सिखाता है । थोड़ेसे दृष्टिभेदके साथ हम इसे 'सम्यक् -विभाजन-ज्ञान' अथवा योग्यताओंकी प्रामाणिकताका मापक कह सकते हैं । चारित्रकी पूर्णता
उक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि अणुव्रत अन्योन्याश्रित तथा परस्परमें पूर्य-पूरक हैं। एकके आचरणका अर्थ सबका आचरण होता है तथा दूसरोंके विना एक व्यर्थ हो जाता है। अहिंसाकी प्रधानता है क्योंकि यह प्रशस्त जीवनका मूलाधार है । जैन तथा बौद्ध धर्ममें यह मानवतासे भी व्यापक है क्योंकि इसमें चेतनमात्रका अन्तर्भाव होता है। संयत जीवनकी अहिंसक भाव तथा दृष्टि मूलकता इसकी परिपूर्णताका जीवित दृष्टान्त है। अस्तेय तथा अपरिग्रह अहिंसाके समान शब्दसे ही निषेधात्मक हैं व्यवहारमें पूर्ण रूपसे विध्यात्मक हैं । पांचों अणुव्रत एक संयत तथा आध्यात्मिक जीवनको पूर्ण बनाते हैं जो कि पूर्ण आत्मोत्थानका साधक तथा अनन्त श्रात्मगुणोंकी सत्य शोधके अनुरूप होता है।
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