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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
सहज हो जाता है जिसपर नैतिकता फलती फूलती है। जिसके अभाव में व्यक्ति ज्ञान, कुशलता तथा महत्त्वकांक्षा के उस स्तरपर चला जाता है जो उसकी जन्मजात योग्यताओं से बहुत नीचा होता है ।
वासना शान्ति स्वयमेव विकास है क्योंकि यह नैतिक स्तरको उठाती है तथा अर्धज्ञात एवं अज्ञात' वासनात्रोंको जीवनधाराको पतनोन्मुख करनेसे रोकती है । यह वर्हिमुख विवेकको अन्तरंग से संयुक्त करती है फलतः जीवनमें वासना, तीव्र भाव तथा श्रादर्शोंकी एकतानता बनी रहती है । रोधक भावों का लय अथवा रूपान्तर जीवनमें पूर्णताका प्रवेश कराता है । फलस्वरूप व्यक्तित्वके विकास और स्वातंत्र्य की धारा बनी रहती है । व्यक्तित्वमें नैतिकताका उदय होता है. गुणों की दृष्टिसे व्यक्ति सर्वथा परिवर्तित हो जाता है तथा व्यक्ति और वातावरणके बीच के खिंचावकी इतिश्री हो जाती है । सब गुणोंके विकास तथा एकतानता जन्य व्यक्तित्वका एकमात्र आधार होनेके कारण यह कुमागकी संभावनाको समाप्त कर देता है तथा श्रानन्दस्रोतको खोल देता है । क्योंकि वृत्तियों तथा अभिप्रायों की जटिलता तथा संघर्ष से ही तो औदासीन्य उत्पन्न होता है ।
अनुशासन
वासना शान्ति अनुशासनकी सहचरी है, शक्तिकी निर्मापक साधु कर्तृत्व-वृत्तियों का समाज सेवा में समुचित उपयोग करती जिसका महत्व सर्वविदित है । अनुशासन स्वयं कृतात्मसंयमका सार है । और वाह्य निरोध के विरुद्ध है । वाह्य अभ्यास से अनुशासन नहीं होता । जब सबके भले में मनुष्य अपना भला देखता है तो वह श्रात्म-अनुशासनकी वृद्धि करता है और इस मार्ग में दृढ़ता से बढ़ता जाता है । अनुशासन विधायक गुरण है निषेधपरक नहीं । इसके द्वारा मानव शक्तियों का समुचित उपयोग होता है और वह लगन तथा दायित्व भावना से प्राप्लावित हो जाता है । इसके कारण व्यक्तिगत तथा समष्टिगत चेतनाकी एकता हो जाती है । इसमें विवेककी ही प्रधानता रहती है अर्थात् मनुष्य समझता है कि जातिसे क्या तात्पर्य है, विविध परिस्थितियों द्वारा पुरस्कृत कठिनाइयों, स्थितियों तथा विभिन्न व्यक्तियों में से किसे चुनना, और अपने निश्चित आदर्श तथा सुलभ साधन सामाग्रीका सामञ्जस्य कैसे करना । बुद्धि तथा नैतिकता की अन्योन्यरूपताका अनुशासन उत्तम दृष्टान्त है । सामाजिक मान्यताएं, संस्था का उद्देश्य तथा परिस्थितियोंका ऐसा स्पष्ट बोध होना चाहिये कि उसका जीवन में उपयोग हो सके । अनुशासनबद्ध व्यक्ति अपनी योग्यताका दान करता है और अनायास ही सामाजिक जीवनमें सदा नैतिकताका संचार करता है ।
आत्म नियन्त्रण [ संयम ] --
व्यवहारिक जीवन में अनुशासनको ही संयम कहते हैं । सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक जीवन में उन्नत स्तरकी नैतिकताकी सृष्टि करता है । यदि नागरिकोंमें संयम न हो तो उनके संचालक नियम तथा प्रथाएं व्यर्थ हो जांयगी । किन्तु इसका विकास तथा पोषण आवश्यक है क्योंकि
१ --- यद्यपि यह नामकरण वैज्ञानिक नहीं है ।
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