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वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ
चेष्टा ही उनकी जन्म तथा स्थितिका प्रधान कारण है। मनुष्य मात्रके लिए प्रशस्त जीवनोपयोगी परिस्थितियां यदि देनी हैं तो व्यक्तिको इन्हें अपने लिए ही नहीं जुटाना चाहिये अपितु ऐसा आचरण करना चाहिये कि दूसरेकी स्थिति भी अक्षुण्ण रहे । इतना ही नहीं प्रत्येक व्यक्तिको दूसरेके लिए अधिकतम सुविधा देनी चाहिये ।
जो अपना 'स्वत्व' है वही दूसरे के प्रति कर्तव्य है। इस प्रकार स्वत्व और दायित्व अन्योन्याश्रित हैं क्योंकि वे एक ही तथ्यके दो पक्ष हैं । एक ही प्रवृत्ति स्वार्थ दृष्टिसे स्वत्व और परार्थ दृष्टि से दायित्व होती है। वे सामाजिक गुण हैं और सबके प्रशस्त जीवनकी आवश्यक-भूमिका हैं । इनके 'पूर्वाऽपरत्व' की चर्चा निरर्थक है क्यों कि उनका अाधार एक ही है तथा वे 'पूर्य-पूरक' हैं । यदि सब स्वत्वोंके भूखे होकर कर्त्तव्योंकी उपेक्षा करेंगे तो सबके स्वत्व आकाश-कुसुम हो जाय गे । यह मानव जीवन की प्रथम सीढ़ी है जिसपर सबको पुनः सावधानीसे पैर रखना है। दूसरेके स्वत्वोंका ध्यान रखना भी अहिंसामय व्यवहार है; यह मुखोक्त है । ४-ब्रह्मचर्य--
स्वत्वोंका ध्यान तथा कर्त्तव्य पालन पर-प्रेरणासे ही सदैव नहीं चल सकते, 'नैतिकताकी स्थापना' इस संदर्भ में अात्मविरोध है क्योंकि नैतिक आचरणोपयोगी परोक्ष परिस्थितियां जुटाना ही तो शक्य है । सुविदित है कि अहिंसाका व्यापक व्यवहार सर्वथा बल प्रयोगहीन बातावरणमें ही हो सकता है किन्तु नैतिकताका अन्तरंग रूप वाह्य रूपसे सर्वथा भिन्न है इसकी उत्पत्ति अन्तरंगसे होती है । आत्म नियन्त्रण सामाजिक जीवनका उद्गम स्थान है जिसे हम व्यापक रूपमें ब्रह्मचर्याणुव्रतका पालन कहते हैं । चारित्र
भलायी अथवा बुरायी जीवका स्वभाव नहीं है वह तो परिणमन शक्ति सम्पन्न है अर्थात् चारित्रके लिए कच्ची मिट्टी है । सरसता तथा सन्तुलनका ही नाम विकास है जो कि व्यापक तथा वर्द्धमान वातावरण के सामञ्जस्यका अंश होता है। नैतिक दृष्टिको कसौटी बनानेके निश्चित उद्देश्यसे इसमें समस्त सहज वृत्तियोंका समिश्रण हो जाता है जिसका परिणाम विवेक और प्रवृत्तिका समन्वय होता है । इसमें वृत्तियोंका पारस्परिक सन्तुलन भी होता है। इस सन्तुलन और सम्मिश्रणसे उस एकरस प्रवृत्तिका उदय होता है जिसे 'श्रात्मबल' कहते हैं । वह विविध इच्छा शक्तियोंका एक रूप होता है । सुपुष्ट निश्चित श्रात्मशक्ति ही चरित्रकी सर्वोत्तम परिभाषा है । श्रात्म-दमनकी प्राचीन परम्पराके विरुद्ध कतिपय अधकचरे लोगों द्वारा उठाया गया 'इच्छापूर्तिवाद' भी चारित्रका आधार नहीं हो सकता। क्योंकि इच्छापूर्तिवादकी विविध कोटियां है जो अनवस्थाकर हो सकती हैं और सहज ही उन मर्यादाओंको नष्ट कर सकती हैं जिनकी स्थिति चिरस्थायी सुख-शान्तिके लिए अनिवार्य है।
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