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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
था उस समय भी जनतंत्र, आत्म निर्णय, अन्ताराष्ट्रिय न्याय तथा सहकार, निःशस्त्रीकरण, युद्ध की अवैधता तथा चिरस्थायी शान्ति की साधन सामग्री की शोध की उत्कट भावना विश्वके कोने कोने में दृष्टिगोचर होती थी । अमेरिकाके 'अध्यक्ष वुडरो विलसन' में ही उस युग की मनोवृत्ति मूर्तिमान हुई थी जिनकी वक्तृता और आदर्शवादिताने पूर्व तथा पश्चिमके समस्त देशोंमें नूतन ज्योति जगा दी थी। तथापि इस मृग-मरीचिकासे मुक्ति पाने तथा द्वितीय युद्धकी कल्पना करनेमें बीस वर्ष ही लगे । इस निराशाका कारण भी वही भूल थी जो विश्व दृढ़-बद्ध मूल आर्थिक एवं राजनैतिक विकारों तथा ऊपरी लक्षणोंमें भेद न कर सकनेके कारण करता आया है। राजतंत्र एवं राजनीति का व्यवहार सदैव वेग और अस्थिरता पूर्वक चलता है फलतः राजनीतिज्ञ उस कल्पनासे ही संतुष्ट हो जाते हैं जो उन्हें स्पष्ट ही सुखद दिखती है तथा बाहर दिखने वाले काल्पनिक दोषोंका ही वे प्रतीकार करते हैं । १९१९-२० में यही अखण्ड विश्वमें हुअा था, फलतः शस्त्रीकरणकी प्रतियोगिता, गुप्त राजनीति, अाक्रमण, राष्ट्रीयता, साम्राज्यवाद. सबलोंके द्वारा दुर्बलोंका शोषण, जातिमद, महासमर, अादि पुरातन दोषोंकी सन्तान चलती रही और वे अधिक विकृत रूपमें पुनः जाग उठे । विश्वकी इस असफलताका एक दुःखद परिणाम विशेष रूपसे शोचनीय है। सद्यः जात इस अ-भ्रान्तिने विश्वको अाज अधिक उद्भ्रान्त बना दिया है जबकि मानव जातिके इतिहासमें यह युग ही उच्च श्रादर्शों तथा उदार प्रेरणाओं की अविलम्ब अधिकतम अपेक्षा करता है जैसी कि पहिले कभी नहीं हुई थी। पाश्चात्य राजनीतिज्ञ आमूल पुनर्निर्माण को अविलम्ब करनेसे सकुचाते हैं उन्हें उज्ज्वल भविष्य तथा अपने पुरुषार्थ पर भरोसा ही नहीं हैं ; ऐसा प्रतीत होता है। युद्धकी सामाजिक भूमिका
युद्ध, शस्त्रीकरण तथा दुर्योधन-राजनीतिमें भेद करना अाजकी स्थितिमें अत्यन्त दुरूह है, कारण वे पृथक् पृथक् पदार्थ ही नहीं प्रतीत होते हैं । प्रकट उद्देश्य और प्रयोगके अवसरोंकी चर्चाको जाने दीजिये, आज तो ये सब अधिकार-ज्ञापन, विवाद-शमन, आदि उन नीतियोंके साधक उपाय हो रहे हैं जो स्पष्ट ही हिंाकी नैतिकताका पोषण करती हैं । एक दलके द्वारा दूसरे दलपर किया गया बलात्कार ही इनका आधार है । यदि विवादोंका शमन बलात्कार द्वारा होता है तो इसका यही तात्पर्य है कि अाजका समाज पशुबधके सहचारी घृणा, असफलता तथा शोषणसे ग्रस्त है। इनके द्वारा अन्ताराष्ट्रिय सम्बन्ध, राष्ट्रिय संगठन, साहित्य तथा दृष्टि सर्वथा क्षत विक्षत हो गये हैं । समष्टिगत व्यवहार पर बल छलकी ऐसी गम्भीर एवं स्पष्ट छाया पड़ी है कि यदि हमें श्रात्मसंस्कार करना है तो प्रथम सिद्धांतको पकड़ना चाहिये । वर्तमान संघर्षके गर्तसे निकलकर शान्ति और सम्पन्नता पानेका एकमात्र उपाय मानव व्यवहारोंका ऐसा संस्कार है जिसके द्वारा 'बल' के सिंहासनपर अहिंसाकी प्रतिष्ठा हो सके। इस तथ्यको हृदयंगम करानेके लिए भगीरथ प्रयत्न करना है।