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जैनधर्भमें अहिंसा (१) रोग अथवा और कोई आपत्ति असाध्य हो । (२) सबने रोगीके जीवनकी आशा छोड़ दी हो । (३) प्राणी स्वयं प्राणत्याग करनेको तयार हो।
( यदि प्राणीकी इच्छा जाननेका कोई मार्ग न हो तो इस क्रिया करने वाले को शुद्ध हृदय से विचारना चाहिये कि ऐसी परिस्थितिमें यह प्राणी क्या चाहता है । )
(४) जीवनकी अपेक्षा उसका त्याग ही उसके लिए श्रेयस्कर (धर्मादिकी रक्षाका कारण) सिद्ध होता हो।
इसके अतिरिक्त और भी बहुतसे कारण हो सकते हैं जैसे परिचर्या न हो सकना, आदि; परन्तु उपयुक्त कारण तो अवश्य होने ही चाहिये । इस कार्य में एक बात सबसे अधिक आवश्यक है। वह है परिणामों की निर्मलता, निःस्वार्थता, आदि। जिस जीवको प्राणत्याग करना है उसीकी भलायी का ही लक्ष्य होना चाहिये । इससे पाठक समझे हों गे कि प्राणत्याग करने और करानेसे ही हिंसा नहीं होती--हिंसा होती है तब, जब हमारे भाव दुःख देनेके होते हैं। मतलब यह कि कोरी द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं कहला सकती । साथमें इतना और समझ लेना चाहिये कि कोरा प्राणवियोग हिंसा तो क्या, द्रव्यहिंसा भी नहीं कहला सकता । प्राणवियोग स्वतः द्रव्यहिंसा नहीं है परन्तु वह दुःखरूप द्रव्यहिंसाका कारण होता है इसलिए द्रव्यहिंसा कहलाता है। अकलंकदेवकी निम्नलिखित पंक्तियोंसे भी यह बात ध्वनित होती है--
___"स्यान्मतं प्राणेभ्योऽन्य आत्मा अतः प्राणवियोगे न आत्मनः किञ्चिद् भवतीत्यधर्माभावः स्यात् इति । तन्न, किं कारणं ? तद् दुःखोत्पादकत्वात् , प्राण व्यपरोपणे हि सति तत्संबंधिनो जीवस्य दुःखमुत्पद्यते इत्यधर्मसिद्धिः।" ( तत्वार्थराजवार्तिक)
इसमें बतलाया है कि 'श्रात्मा तो प्राणोंसे पृथक है इसलिए प्राणोंके वियोग करने पर भी श्रात्माका कुछ ( बिगाड़) न होनेसे अधर्म न होगा, यदि ऐसा कहा जाय तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि • प्राणवियोग होने पर दुःख होता है इसलिए अधर्म सिद्ध हुअा।'
इससे मालूम हुआ कि द्रव्यहिंसा तो दुःखरूप है। प्राणवियोग दुःखका एक बड़ा साधन है इसलिए वह द्रव्यहिंसा कहलाया । यह द्रव्यहिंसा भी भावहिंसाके विना हिंसा नहीं कहला सकती । जो लोग बाह्यरूप देखकर ही हिंसा अहिंसाकी कल्पना कर लेते हैं वे भूलते हैं । इस विषय में प्राचार्य अमृतचंद्रकी कुछ कारिकाएं उल्लेखनीय हैं
अविधायापि हि हिंसाफल भाजन भवत्येकः । कृत्वाऽप्यपरो हिंसांहिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥
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