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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
जीवोंकी हिंसा करनेके भाव नहीं रखता अथवा उनको बचानेके भाव रखता है उसके द्वारा जो द्रव्यहिंसा होती है उसका पाप उसे नहीं लगता है । इसलिए कहा है---
वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते।। अर्थात् --प्राणोंका वियोग करदेने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता। इस बातको शास्त्रकारोंने और भी अधिक स्पष्ट करके लिखा है
उच्चालदम्मि पादे इरिया समिदस्स णिगमठाणे । श्रावादेज कुलिंगो मरेज्ज तजोग्गमासेज्ज ॥
ण हि तस्स तरिणमित्तो बंधो सुहुमोवि देसिदो समये । अर्थात्-जो मनुष्य देख देखके रास्ता चल रहा है उसके पैर उठाने पर अगर कोई जीव पैर के नीचे आ जावे और कुचले जाकर मर जावे तो उस मनुष्यको उस जीव के मारनेका थोड़ा सा भी पाप नहीं लगता। हिंसाका पाप तभी लगता है जब वह यत्नाचारसे काम न लेता हो
मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदाहिंसा ।
पयदस्स णत्थि बन्धो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥ अर्थात्-जीव चाहे जिये चाहे मरे, परन्तु जो अत्याचारसे काम करेगा उसे अवश्यही हिंसाका पाप लगेगा। लेकिन जो मनुष्य यत्नाचारसे काम कर रहा है उसे प्राणिवध हो जानेपर भी हिंसाका पाप नहीं लगता।
विश्वग्जीवचिते लोके व चरन् कोप्यमोक्ष्यत । भावैकसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ॥
-सागरधर्मामृत। अर्थात-जब कि लोक, जीवोंसे खचाखच भरा है तब यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही निर्भर न होते तो कौन अादमी मोक्ष प्राप्त कर सकता ? समाधि-मरण व्रत
___ जब जैनधर्मकी अहिंसा भावोंके ऊपर निर्भर है तब उसे कोई भी समझदार अव्यवहार्य कहनेका दुःसाहस नहीं कर सकता। जैनधर्मके समाधिमरण व्रतके ऊपर विचार करनेसे साफ मालूम होता है कि मरनेसे ही हिंसा नहीं होती। इस सल्लेखना व्रतके महत्व और स्वरूपको न समझकर किसी अादमीने एक पत्र में लिखा था कि जैनी लोग महिनों भूखों रह कर मरनेमें पुण्य समझते हैं । अगर इस भाईने सल्लेखना का रहस्य समझा होता तो कभी ऐसा न लिखता, और न सल्लेखनाको आत्महत्याका रूप ही देता । सल्लेखना निम्न अवस्थाओंमें की जाती है।