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जैनधर्ममें अहिंसा
करता हूं।" "वृक्ष और वृक्षके अन्य भेदोंके साथ जो मैंने अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं।" "महताब, अाफ़ताब, जलती अग्नि, अादिक साथ जो मैंने अपराध किया हो मैं उसका पश्चात्ताप करता हूं।"
पारसियोंका विवेचन जैनधर्मके प्रतिक्रमण-पाठसे मिलता जुलता है जोकि पारसी धर्मके ऊपर जैनधर्मके प्रभावका सूचक है । मतलब यह है कि जैनधर्म में अहिंसाका बड़ा सूक्ष्म विवेचन किया गया है। एक दिन था जब संसारने इस सूक्ष्म अहिंसाको अाश्चर्य और हर्षके साथ देखा था और अपन या था । क्या अहिंसा अव्यवहार्य है--
यहां पर प्रश्न होता है कि जब जैनधर्मकी अहिंसा इतनी सूक्ष्म है तो उसका पालन कदापि नहीं हो सकता । वह अव्यवहार्य है इसलिए उसका विवेचन व्यर्थ है । परन्तु जैनधर्मने हिंसा और अहिंसाका विवेचन इतने अच्छे रूपमें किया है कि वह जितना ही उत्कृष्ट है उतनाही व्यवहार्य भी है ! द्रव्यहिंसा और भावहिंसा--
जैनधर्मके अनुसार अपने द्वारा किसी प्राणीके मर जानेसे या दखी हो जानेसे ही हिंसा नहीं होती । संसारमें सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्त से मरते भी रहते हैं । फिर भी जैनधर्म इस प्राणीघातको हिंसा नहीं कहता । वास्तवमें 'हिंसा रूप परिणाम' हो हिंसा है। द्रव्यहिंसाको तो सिर्फ इसलिए हिंसा कहा है कि उसका भावहिंसाके साथ सम्बन्ध है। फिर भी यह बात याद रखना चाहिये कि द्रव्यहिंसाके होने पर भावहिंसा अनिवार्य नहीं है। अगर द्रव्य हिंसा और भाव हिंसाको इस प्रकार अलग न किया गया होता तो जैनधर्मके अनुसार कोई भी अहिंसक न बन सकता और निम्नलिखित शंका खड़ी रहती
जले जंतुः स्थले जंतुराकाशे जंतुरेव च ।
जंतुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसकः ॥ जलमें जंतु हैं, स्थलमें जंतु हैं और आकाशमें भी जंतु हैं। जब समस्त लोक जंतुओंसे भरा हुआ है तब कोई भिक्षु ( मुनि) अहिंसक कैसे हो सकता है ? इस प्रश्नका उत्तर यों दिया गया है
सूक्ष्मा न प्रतिवीड्यन्ते प्राणिनः स्थूलमूर्तयः ।
ये शक्यास्ते विवय॑न्ते का हिंसा संयतात्मनः॥ सूक्ष्म जीव ( जो अदृश्य होते हैं तथा न तो किसीसे रुकते हैं और न किसीको रोकते हैं ) तो पीड़ित नहीं किये जा सकते, और स्थूल जीवोंमें जिनकी रक्षा की जा सकती है उनकी की जाती है; फिर मुनिको हिंसाका पाप कैसे लग सकता है ? इसीसे मालूम होता है कि जो मनुष्य
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