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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
आधारकी ज्ञानमें प्रतीति होती है। जैन सिद्धान्त इन्द्रियों तथा पदार्थको ज्ञान कारण मानते हुए भी यह नहीं मानता कि उन्हें ज्ञानकी उत्पत्तिमें उपादानता है । ऐसा मानना नैयायिकके 'इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष' से ज्ञान होनेके सिद्धान्तको स्वीकार कर लेना है । इन्द्रियार्थ सन्निकर्षको स्वीकार करनेका तात्पर्य होगा कि स्व-पर प्रकाशक चेतन ज्ञान जड़ तथा अपराक्ष पदार्थ से उत्पन्न होता है। जैन ज्ञान पद्धति न तो योगाचारके समान 'ज्ञानसे पदार्थ है और न नैयायिकके समान 'अर्थसे ज्ञान' ही है अपितु वह अात्म परिस्पन्द द्वारा उद्भव होता है और स्वायत्त प्रकारसे पदार्थको यथाविधि ग्रहण करता है और उसका आकार भी ग्रहण करता है।
प्रमाण लक्षण परीक्षण--
धर्मोत्तर कृत प्रमाणकी बौद्ध परिभाषाकी मीसांसा किये विना यह प्रकरण सर्वाङ्ग न होगा। अतएव "अविसंवादक ज्ञानही सम्यग्ज्ञान है'' पर दृष्टि देनेसे ज्ञात होता है कि सम्वादकसे उसका तात्पर्य ज्ञानकी अर्थको प्राप्त करनेकी योग्यता (प्रदर्शितार्थ प्राप्तित्वम् ) से है । किन्तु किसी पदार्थके ज्ञान तथा इच्छा शक्तिमें बड़ा अन्तर है । श्रा० धर्मोत्तरका कहना है कि प्रमाणका फल अर्थ ज्ञान है । तथा वही ज्ञान प्रमाण है जिसका विषय अब तक अनधिगत हो। इस प्रमाण लक्षणका विचार करते हुए जैनाचार्य पहिले तो 'अनधिगतार्थ' विशेषण पर आपत्ति करते हैं । इसके विरुद्ध दिये गये हेतुअोंका उल्लेख 'ग्रहीत ग्राहिता के विचारमें हो चुका है। ये पर्याप्त हैं क्योंकि उन्हींके बलपर ग्रहीत ग्राहिताको प्रमाणता प्राप्त हुई है । दूसरी विचारणीय बात प्रापण-शक्ति है। जैसाकि विज्ञानवादी कहता है कि ज्ञानके उत्तरक्षणमें पदार्थकी हेयोपादेयतासे त्याग श्रादान रूप प्रवृत्ति होती है। जैनदृष्टिसे यह मानना भ्रान्त है क्योंकि हेयोपादेयताके अतिरिक्त पदार्थ में उपेक्षणीयता भी तो होती है । वस्तुमें जैन मान्यतानुसार राग, द्वेष तथा उदासनिता होते हैं । क्यों कि प्रथम दोके समान उपेक्षाका भी स्पष्ट अनुभव होता है । फलतः उपेक्षणीयके प्रति प्रवृचि असंभव है। फलतः विज्ञानवादीका अर्थगुण विवेचन तथा तजन्य प्रवृत्तियोंका स्वरूप सर्वाङ्ग नहीं है। जैन कहते हैं कि यदि इच्छा अथवा प्रवृत्तिको प्रामाण्यका कारण माना जायगा तो फिर अनुमान को प्रामाणिकताकी भी यह कसौटी मानना अनवस्थाको उत्पन्न करेगा। क्योंकि अनुमानका विषय सामने नहीं होता, सदैव भूत या भविष्यत् होता है।
१ “अविसंवादक ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् " न्यायविन्दु टीका पृ. ३ २. "अर्थाधिगतिरेव प्रमाणफलम्"। न्यायविन्दु टीका पृ. ३ । ३. न्याय० पृ. ४ । ४. न्याय मञ्जरी पृ. २२ ।
५. स. त. पृ. ४६८-७१ ।।
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