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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
स्याद्वादकी व्यापकता
"इसतरह स्याद्वादने, विरुद्ध वादोंकी मीमांसा करके उनके अन्तःसूत्र रूप आपेक्षिक सत्यका प्रतिपादन करके उसे पूर्णता प्रदान की है । विलियम जेम्स नामके विद्वान् द्वारा प्रचारित Pragmtaism वादके साथ स्याद्वादकी अनेक अंशोंमें तुलना हो सकती है । स्याद्वादका मूलसूत्र जुदे, जुदे दर्शन शास्त्रोंमें जुदे जुदे रूपमें स्वीकृत हुआ है। यहां तक कि शङ्कराचार्य ने पारमार्थिक-सत्यसे व्यवहारिक सत्यको जिस कारण विशेष रूपमें माना है, वह इस स्याद्वादके मूलसूत्रके साथ अभिन्न है। श्रीशंकराचार्यने परिदृश्यमान या दिखलायी देनेवाले जगतका अस्तित्व अस्वीकार नहीं किया है, उन्होंने केवल इसकी पारमार्थिक सत्ताको अस्वीकार किया है। बौद्ध विज्ञानवाद एवं शून्यवादके विरुद्ध उन्होंने जगतकी व्यवहारिक सत्ताको अत्यन्त दृढ़ताके साथ प्रमाणित किया है। समतल भूमिपर चलते समय एक तल, द्वितल. त्रितल, आदि उच्यताके नाना प्रकारके भेद हमें दिखलायी देते हैं, किन्तु बहुत ऊंचे शिखरसे नीचे देखनेपर सतखंड। महल और कुटिय में किसी प्रकारका भेद नहीं जान पड़ता। इसी तरह ब्रह्मबुद्धिसे देखनेपर जगत मायाका विकास, ऐन्द्रजालिक रचन। अर्थात् अनित्य है; किन्तु साधारण बुद्धि से देखनेपर जगतकी सत्ता स्वीकार करना ही पड़ती है । दो प्रकारका सत्य दो विभिन्न दृष्टियोंके कारणसे स्वयं सिद्ध है ! वेदान्तसारमें मायाको जो प्रसिद्ध 'संज्ञा दी गयी है, उससे भी इस प्रकारकी भिन्न दृष्टिोंसे समुत्पन्न सत्यताके भिन्न रूपोंकी स्वीकृति इष्ट है । बौद्ध दृश्यवादमें शून्यका जो व्यतिरेकमुख लक्षण किया है, उसमें भी स्याद्वादकी छाया स्पष्ट प्रतीत होती है। अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति दोनों, अस्ति-नास्ति दोनों नहीं, इन चार प्रकारकी भावनाओंके जो परे हैं, उसे शून्यत्व कहते हैं । इसप्रकार पूर्वी और पश्विमी दर्शनोंके जुदे जुदे स्थानोंमें स्याद्वादका मूल सूत्र तत्त्वज्ञानके कारण रूपसे स्वीकृत होनेपर भी, त्याद्वादको स्वतंत्र उच्च दार्शनिक मतके रूपमें प्रसिद्ध करनेका गौरव केवल जैनदर्शनको ही मिल सकता है । जैन सृष्टिक्रम--
___जैनदर्शनके मूलतत्त्व या द्रव्यके सम्बन्धमें जो कुछ कहा गया है उससे ही मालूम हो जाता है कि जैनदर्शन यह स्वीकार नहीं करता कि सृष्टि किसी विशेष समयमें उत्पन्न हुई है । एक ऐसा समय था जब सृष्टि नहीं थी, सर्वत्र शून्यता थी, उस महाशून्यके भीतर केवल सृष्टिकर्ता अकेला विराजमान था और ऊसी शून्यसे किसी एक समयमें उसने उस ब्रह्माण्डको बनाया। इस प्रकारका मत दार्शनिक दृष्टि से अतिशय भ्रमपूर्ण है । शून्यसे ( असत्से ) सत्की उत्पत्ति नहीं हो सकती । सत्कार्य वादियोंके मतसे केवल सत्से ही सत्की उत्पत्ति होना सम्भव है | सत्कार्यवादका यह मूलसूत्र संक्षेपमें भगवद्गीतामें मौजूद है । सांख्य और वेदान्तके समान जैनदर्शन भी सत्कार्यवादी है !
१. “सदसदुभयानुभय-चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं शून्यत्वम्"--- २. "नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।”